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________________ 12 है । एक बार आत्मा के शुद्ध हो जाने पर फिर उसकी संसार में अवतार लेने वाली अशुद्ध दशा नहीं हो सकती । जैसे धान्य के छिलके से अलग हुए चावल का पुनः उत्पन्न होना असंभव है, उसी प्रकार कर्म मल से रहित हुए शुद्ध जीव का संसार में मनुष्यादि के रूप से जन्म लेकर अशुद्ध दशा को प्राप्त करना भी असंभव है । जैन धर्म अवतारवादी नहीं, प्रत्युत उत्तारवादी है। ईश्वर का मनुष्य के रूप में अवतरण तो उसके हास या अवनति का द्योतक है, विकास का नहीं, क्योंकि अवतार का अर्थ है नीचे उतरना । किन्तु उत्तार का अर्थ है- ऊपर चढ़ना, अर्थात् आत्म-विकास करना । अवतारवादी परम्परा में ईश्वर या परमात्मा नीचे उतरता है, मनुष्य बनकर फिर सर्व साधारण संसारी पुरुषों के समान राग-द्वेष मयी हीन प्रवृत्ति करने लगता है। किन्तु उत्तारवादी परम्परा में मनुष्य अपना विकास करते हुए ऊपर चढ़कर ईश्वर भगवान् या परमात्मा बनता है । जैन धर्म ने पूर्ण रूप से विकास को प्राप्त आत्मा को ही भगवान् या परमात्मा कहा है, सांसारिक प्रपंच करने वाले व्यक्ति को नहीं । भ. महावीर ने स्वयं ही बतलाया कि सर्व साधारण के समान मैं भी अनादि से संसार में जन्म-मरण के चक्कर लगाता हुआ आ रहा था। इस युग के आदि में मैं आदि महापुरुष ऋषभदेव का पौत्र और आदि सम्राट् का पुत्र था। किन्तु अभिमान के वश में होकर मैंने अपनी उस मानव पर्याय का दुरुपयोग किया और फिर उत्थान-पतन की अनेक अवस्थाओं का प्राप्त हुआ। पुनः अनेक भवों से उत्तरोत्तर आत्म विकास करते हुए आज इस अवस्था को प्राप्त कर सका हूँ अतः मेरे समान ही सभी प्राणी अपना विकास करते हुए मेरे जैसे बन सकते हैं। यही कारण है कि जैन धर्म ने जगत् का कर्ताधर्ता ईश्वर को नहीं माना है, किन्तु उद्धर्ता पुरुष को ही ईश्वर माना है । जैन धर्म का कर्मवाद सिद्धान्त यही उपदेश देता है कि- " आत्मा ही अपने सुख-दुःख का कर्ता और भोक्ता है । सुमार्ग पर चलने वाला आत्मा अपना मित्र है और कुमार्ग पर चलने वाला आत्मा अपना शत्रु है' । भ. महावीर के पूर्व भव भगवान् महावीर का भिल्लराज के भव से लेकर अन्तिम भव तक का जीवन-काल उत्थान पतन की अनेक विस्मयकारक करुण कहानियों से भरा हुआ है । वर्तमान कालिक समस्त तीर्थङ्करों में से केवल भ. महावीर के ही सबसे अधिक पूर्व भवों का वर्णन जैन सास्त्रों में देखने को मिलता है। दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायों में उनके पूर्व भव का श्री गणेश भिल्लराज के भव से ही पाया जाता है । संक्षेप में भगवान् का यह सर्व जीवन कथानक इस प्रकार है भ. ऋषभदेव के पौत्र और भरत चक्री के पुत्र मरीचि होने से दो भव पूर्व भ. महावीर का जीव इसी जम्बू द्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में सीता नदी के उत्तर किनारे पर पुष्कलावती देश की पुण्डरीकिणी नगरी के समीपवर्ती वन में पुरुरवा नामक का भौल था। गन्तव्य मार्ग भूल जाने के कारण एक दिगम्बर मुनिराज उस वन में विचर रहे थे कि पुरुरवा भील ने दूर से उन्हें जाता हुआ देखकर और हरिण समझ कर मारने के लिए ज्यों ही धनुष-बाण संभाला कि उसकी स्त्री ने यह कह कर उसे मारने से रोक दिया कि 'ये तो वन के देवता घूम रहे हैं, इन्हें मत मारो।' भील ने समीप जाकर देखा, तो उसका भ्रम दूर हुआ और अपनी भूल पर पश्चाताप करते हुए उन्हें भक्ति पूर्वक नमस्कार कर उनसे आत्म-कल्याण का उपाय पूछा। मुनिराज ने उसे मद्य, मांस और मधु सेवन के त्याग रूप व्रत का उपदेश दिया, जिसे उसने जीवन पर्यन्त पालन किया और आयु के समाप्त होने पर वह सौधर्म स्वर्ग में एक सागर की आयु का धारक देव हुआ । वहां के दिव्य सुखों को भोग कर वह इसी भरत क्षेत्र की अयोध्या नगरी में भ. ऋषभदेव का पौत्र और आदि चक्रवर्ती भरत महाराज का पुत्र हुआ, जिसका नाम मरीचि रखा गया । , जब भ. ऋषभदेव संसार देह और भोगों से विरक्त होकर दीक्षित हुए, तब अन्य चार हजार महापुरुषों के साथ मरीचि ने भी भगवान् की भक्ति वश जिन दीक्षा को धारण कर लिया। भ. ऋषभदेव ने दीक्षा लेने के साथ ही छह १. - अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण व सुहाण व । अप्पा मित्तसमित्तं च दुप्पट्ठअ सुप्पठ्ठिओ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only (उत्तराध्ययन अ. २० गा. ३७ ) www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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