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भूपालाः पालयन्तु
भूतधात्रीं
काले काले समन्ताद्विकिरतु मधवा वृष्टिमानन्दपात्रीम् ।
एतद्विद्याधराणामनुभवतु
पुनर्मानसं भव्यानां जैनमार्गप्रणिहितमनसां शाश्वतं
काव्यवस्तु भद्रमस्तु ॥४१॥
शासक लोग प्रजा को सकल उपद्रवों से रहित करते हुए इस भूमण्डल का भली-भांति पालन करें, इन्द्रदेव समय-समय पर आनन्द - दायिनी जल-वर्षा करते रहें, विद्वानों का मन इस काव्य के पढ़ने में सदा लगा रहे और भव्य जनों का मन जैन मार्ग पर अग्रेसर हो, अर्थात् भव्य जन जैन धर्म धारण करें और सारे संसार का सदा कल्याण होवे ॥४१॥
प्रभवेत्समन्ताद्यतः
मङ्गल - कामना
नीतिर्वी रोदयस्येयं
वर्धतां क्षेममारोग्यं
जिनेन्द्र धर्म :
स्वकर्तव्यपथानुगन्ता
1
भूयाज्जनः कर्मठतान्वयीति धर्मानुकूला जगतोऽस्तु नीतिः ॥४२॥
श्री जिनेन्द्रदेव प्ररूपित यह जैन धर्म सर्व ओर प्रसार को प्राप्त हो, जिससे कि जगज्जन अपने कर्त्तव्यमार्ग पर चलें, समस्त लोग कर्मठ बने और धर्म के अनुकूल उनकी नीति हो, ऐसी मेरी भावना है ॥४२॥
स्फुरद्रीतिश्च
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देहिने वात्सल्यं श्रद्धया जिने
॥४३॥
वीरोदय काव्यकी यह नीति प्राणि मात्र के कल्याण के लिए स्फुरायमान रहे जगत् में क्षेम और आरोग्य बढ़ें, एवं जिन भगवान् में श्रद्धा के साथ प्राणिमात्र पर वात्सल्य भाव रहे ||४३||
स
सुषुवे
भूरामले त्याह्वयं
श्रीमान् श्रेष्ठि चतुर्भुजः वाणीभूषणवर्णिनं घृतवरी देवी
धीचयम् 1
पदैरञ्चितं
तेनेदं रचितं समर्थ खचितं जीयाद्वीर महोदयस्य चरितं
प्रशमितंसक लोपद्रवां
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च यं
भद्रै: युग्माक्षिसर्गैर्मितम्
॥२२॥
इस प्रकार श्रीमान् सेठ चतुर्भुजजी और घृतवरी देवी से उत्पन्न हुए, वाणी-भूषण, बाल- ब्रह्मचारी पं. भूरामल वर्तमान मुनि ज्ञान सागर के द्वारा रचित भद्र पदों से संयुक्त, वीर भगवान् के इस वरित में यह बाईसवां सर्ग समाप्त हुआ ॥२२॥
* वीरोदय काव्य समाप्त
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