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________________ रमयन् नमनागनयं मनः जनः ॥३७॥ (गोमूत्रिकमिदं पद्यम्) ज्ञानी जन अपना मन शुद्ध वाङ्मय में संलग्न कर समय व्यतीत करें । वे अपने मन को ईर्षा, द्वेष, और अन्याय मार्ग की ओर किंचिन्मात्र भी न जाने देवें ॥३७॥ विशेष इस पद्य की गोमूत्रिका रचना परिशिष्ठ में देखें । गमयत्वेष द्वेष - धाम विनयेन मुनये नमनोद्यमि देवेभ्योऽर्हद्भयः सम्ब्रजतां दासतां जनमात्रस्य भवेदप्यद्य नो सन्तः अयि 221 वाङ्मये वा 1 ॥३८॥ (यानबन्धरूपमिदम्) सदा से ही सर्व साधारण जनों की दासता करने वाले हम जैसे लोगों का मन आज भगवान् अरहन्त देव के चरण-कमलों को नमस्कार करने के लिए प्रयत्नशील हो और उनका गुणानुवाद करे, यह हमारे सौभाग्य की बात ही है ॥३८॥ विशेष- इस पद्य की यानबन्ध रचना परिशिष्ट में देखें । मानहीनं नमनस्थानं समयं समयं Jain Education International विनष्टै नः ज्ञानध्यानधनं - 1 ॥३९॥ (पद्मबन्धरूपमिदम्) हमारा यह मन विनय के द्वारा अभिमान रहित होकर पापरहित निर्दोष बन जाय, महा मुनियों को नमस्कार करे, एवं सदा ज्ञान और ध्यान में तन्मय रहे, ऐसी हमारी भावना है ॥३९॥ विशेष इस पद्य की पद्मबन्ध-रचना परिशिष्ट में देखें । सदा समा भान्ति मर्जूमति त्वयि महावीर ! स्फीतां कुरु सदा मनः पुनस्तु नः For Private & Personal Use Only (तालवृन्तबन्धमिदं वृत्तम्) हे महावीर प्रभो, आपके विषय में सन्त जन यद्यपि सदा समभाव रखते हैं, तथापि अति भक्ति से वे आपको नमस्कार करते हैं, क्योंकि आप वीतराग होते हुए भी विश्व भर के उपकारक हैं, निर्दोष हैं और संकीर्णता से रहित हैं । हे भगवन्, आपकी कृपा से आपकी यह निर्दोषता मुझे भी प्राप्त हो, ऐसी मुझ पर कृपा करें ॥४०॥ 1 विशेष मनः 1 नुतिप्रिया मजूं मयि ॥४०॥ इस पद्य की तालवृन्त-रचना परिशिष्ट में देखें । www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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