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क्षीणं वीक्ष्य विजेतुमभ्युपगतः स्फीतो नरत्वं प्रति नित्यं यः पुरुषायतामदरवान् वीरोऽसकौ सम्प्रति ॥३३॥
साधारण जन प्रायः भयंकर पदार्थ के अकस्मात सम्मुख उपस्थित होने पर नपुंसकता से भयभीत हो कायर बन जाता है, वही दूसरे समय में अन्य से पराजित होने पर उसकी नाना प्रकार की अनुनयविनय करता हुआ स्त्री भाव को धारण करता है, कालान्तर में वही मनुष्य किसी क्षीण (दुर्बल-अशक्त) मनुष्य को देखकर उसे जीतने के लिए अपना पौरुष दिखाता हुआ दृष्टिगोचर होता है । किन्तु जो निरन्तर ही पुरुषार्थी है, निर्भय है और दूसरे जीवों के संरक्षण के लिए सदा उद्यत रहता है वही पुरुष वास्तव में आज 'वीर' कहलाने के योग्य है और ऐसा वीर पुरुष ही जगत् में धन्य है ॥३३॥
सूपकार इवाहं यं कृतवान् वस्तु केवलम् । तत्स्वादूत किलास्वादु वदेयुः पाठका हि तत् ॥३४॥
मैं तो सूपकार (रसोइया) के समान केवल प्रबन्ध रूप भोज्य वस्तु का निर्माता हूँ । वह वस्तु स्वादु है, अथवा अस्वादु है, यह तो भोजन करने वालों के समान पढ़ने वाले पाठक-गण ही अनुभव करके कहेंगे ॥३४॥
भावार्थ - मेरी यह काव्य-कृति कैसी बनी है, इसका निर्णय तो विज्ञ पाठकगण ही करेंगे । मेरा काम तो रसोइये के समान प्रबन्ध-रचना मात्र था, सो मैंने कर दिया ।
कलाकन्दतयाऽऽह्लादि काव्यं सद-विधुबिम्बवत् । अदोषभावमप्यङ्गीकुर्यादेतन्महाद्भुतम्
॥३५॥ नाना प्रकार की कलाओं का पुञ्ज होकर काव्य पूर्ण शरच्चन्द्र बिम्ब के समान जगत् का आह्लादक हो और अदोष भाव को भी अङ्गीकार करे, यह सचमुच में महान् आश्चर्य की बात है ॥३५॥
भावार्थ - दोषा नाम रात्रि का है, सम्पूर्ण कलाओं का धारक चन्द्रमा भी अदोष भाव को नहीं धारण करता, अर्थात् वह भी कलंक से युक्त रहता है । फिर मेरा यह काव्य सर्व काव्य-गत कलाओं से युक्त हो और सर्वथा निर्दोष भी हो, यह असंभव सी बात यदि हो जाय, तो वास्तव में आश्चर्यकारी ही समझना चाहिए ।
अनन्यभावतस्तद्धि सद्भिरासेव्यते न किम् । केवलं जड जैर्यत्र मौनमालम्ब्यते प्रभो ॥३६॥ हे प्रभो, फिर भी क्या वह सकलंक चन्द्र-बिम्ब सदा सर्व ओर से नक्षत्रों के द्वारा घिरा रहकर न्य भाव से सेवित नहीं होता है ? अर्थात् होता ही है । हां, केवल जड़जों (कमलों) दूसरे पक्ष में जड़ बुद्धियों के द्वारा ही मौन का आलम्बन लिया जाता है ॥३६॥
भावार्थ - चन्द्रमा कलंक-युक्त होने पर भी अपने नक्षत्र-मण्डल से सदा सेवित रहता है, भले ही कमल उसे देख कर मौन रहें, अर्थात् विकसित न हों । इसी प्रकार मेरे इस सदोष प्रबन्ध को भी ज्ञानी जन तो पढ़ेंगे । भले ही कमलों के समान कुछ विशिष्ट व्यक्ति उसके पढ़ने में अपना आदरभाव न दिखावें और मौन रखें ।
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