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________________ Muurrrrr219 Tr Urrrr सुखं सन्दातुमन्येभ्यः कुर्वन्तो दुःखमात्मसात् । छायावन्तो महात्मानः . पादपा इव भूतले ॥२९॥ जैसे भूतल पर छायावान् वृक्ष शीत-उष्णता आदि की स्वयं बाधा सहते हुए औरों को सुख प्रदान करते हैं, उसी प्रकार महापुरुष भी आने वाले दुःखों को स्वयं आत्मसात् करते (झेलते) हुए औरों को सुख प्रदान करने के लिए इस भूतल पर विचरते रहते हैं ॥२९॥ मक्षिकावजना येषां वृत्तिः सम्प्रति जायते । जीवनोत्सर्गमप्याऽऽप्त्वा परेषां वमिहे तवे ॥३०॥ कुछ लोगों की प्रवृत्ति आज मक्खी के समान हो रही है, जो अपना जीवन उत्सर्ग कर दूसरों के वमन का कारण बनती है ॥३०॥ भावार्थ - जैसे मक्खी किसी के मुख में जाकर उसके खाये हुए मिष्टान्न का वमन कराती हुई स्वयं मौत को प्राप्त होती है, इसी प्रकार आज कितने ही लोग इस वृत्ति के पाये जाते हैं कि जो अपना नुकसान करके भी दूसरों को हानि पहुँचाने में संलग्न रहते हैं । ऐसे लोगों की मनोवृत्ति पर ग्रन्थकार ने अपना हार्दिक दुःख प्रकट किया है । दुःखमे कस्तु सम्पर्के प्रददाति परः परम् । दुःखायापसरन् भाति को भेदोऽस्त्वसतः सतः ॥३१॥ अहो देखो-एक तो सम्पर्क होने पर दूसरे को दुःख देता है और दूसरा दूर होता हुआ दुःख देता है, दुर्जन और सज्जन का यह क्या विलक्षण भेद प्रतीत होता है ॥३१॥ भावार्थ - दुर्जन का तो समागम दुःखदायी होता है और सज्जन का वियोग दुःखदायी होता है, संसार की यह कैसी विलक्षण दशा है। ग्रन्थकार का लघुता-निवेदन ममाऽमृदुगुरङ्कोऽयं सोमत्वादतिवर्त्यपि विकासयतु पूषेव मनोऽभ्भोजं मनस्विनाम् ॥३२॥ मेरा यह काव्य-प्रबन्ध यद्यपि मृदुता-रहित है, कटूक्ति होने से सौम्यता का भी उल्लंघन कर रहा है, तथापि सन्ताप-जनक सूर्य के समान यह मनस्वी जनों के हृदय-कमलों को विकसित करेगा ही, ऐसा मेरा विश्वास है ॥३२॥ योऽकस्माद्भयमेत्यपुंसकतया भीमे पदार्थे सति एकस्मिन् समये परेण विजितः स्त्रीभावमागच्छति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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