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Currrrrrrrrrr सत्त्वेषु सन्निगदतः करुणापरत्वं भूत्वानुयाय्यपि वदेत्तदिहाद्ध तत्वम् । यत्साधुतोऽन्यपरिरक्षणमेव पापं हा हन्त किन्तु समुपैमि कलेः प्रतापम् ॥२५॥
जो धर्म प्राणिमात्र पर मैत्री और करुणाभाव रखने का उपदेश देता है, उसी के अनुयायी कुछ जैन लोग कहें कि साधु के सिवाय अन्य किसी भी प्राणी की रक्षा करना पाप है । सो हाय यह बडे दुःख और आश्चर्य की बात है । अथवा मैं तो इसे कलिकाल का ही प्रताप मानता हूँ कि लोग जीवरक्षा जैसे धर्म-कार्य को भी पाप-कार्य बतलाते हुए संकोच का अनुभव नहीं करते ॥२५॥
यः क्षत्रियेश्वरवरैः परिधारणीयः सार्वत्वमावहति यश्च किलानणीयः सैवाऽऽगतोऽस्ति वणिजामहहाद्य हस्ते वैश्यत्वभेव हृदयेन सरन्त्यदस्ते ॥२६॥
जो धर्म उत्तम क्षत्रिय राजाओं के द्वारा धारण करने योग्य था, और अपनी सर्व कल्याणकारी निर्दोष प्रवृत्ति के कारण सब का हितकारी था, वही जैन धर्म आज व्यापार करने वाले उन वैश्यों के हाथ में आ गया है, जो धर्म के विषय में भी हृदय से वणिक्-वृत्ति का आश्रय कर रहे हैं ॥२६॥
भावार्थ - आज तक संसार में जितने भी जैन धर्म के प्रवर्तक तीर्थकर हुए हैं, वे सब क्षत्रिय थे और क्षत्रिय उसे कहते हैं जो दूसरों की दुःख से रक्षा करे । ऐसा क्षत्रियों के द्वारा धारण करने योग्य यह जैन धर्म उन व्यापारी वैश्य वर्ग के हाथों में आया है, जिनका कि अपनी वस्तु को खरी और दूसरों की वस्तु को खोटी बताना ही काम है । यही कारण है कि जैन-धर्म आज जहां प्राणिमात्र का हितैषी होने के कारण लोक-धर्म या राज-धर्म होना चाहिए था, वह आज एक जाति या सम्प्रदाय वालों का धर्म माना जा रहा है, यह बडे दुःख की बात है ।
येषां विभिन्नविपणित्वमनन्यकर्म स्वस्योपयोगपरतोद्धरणाय मर्म । नो चेतपुनस्तु निखिलात्मसु तुल्यमेव धर्मं जगाद न वधं जिनराजदेवः ॥२७॥
अपनी-अपनी जुदी दुकान लगाना ही जिनका एक मात्र कार्य है और अन्यों से अपना निरालापन प्रकट कर अपनी उपयोगिता सिद्ध करना ही जिनका धर्म है, ऐसे वैश्यों के हाथों में आकर यदि यह विश्व धर्म आज अनेक गण, गच्छ आदि के भेदों में विभक्त हो रहा है, तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? श्री जिनराज देव ने तो समस्त जीवों में समान भाव से जीव-रक्षा को ही धर्म कहा है, जीवघात को नहीं ॥२७॥
इदानीमपि वीरस्य सन्ति सत्यानुयायिनः । येषां जितेन्द्रियं जन्म परेषां दुखदायि न ॥२८॥
इतना सब कुछ होने पर भी आज भी भगवान् महावीर के सच्चे अनुयायी पाये जाते हैं, जो जितेन्द्रिय है और जिनका जीवन दूसरों के लिए दुःखदायी नहीं है, प्रत्युत सर्व प्रकार औरों का कल्याण करने वाला ही है ॥२८॥
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