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________________ 215 चन्द्रगुप्त मौर्य का पुत्र बिन्दुसार और उसका पौत्र अशोक और तत्पश्चात् सम्प्रति आदि श्रेष्ठ राजाओं का आश्रय पाकर इस भारत देश की संस्कृति एक बिन्दु वाली रही, अर्थात् उक्त राजाओं के समय सारे भारतवर्ष की संस्कृति और सभ्यता अहिंसा धर्मप्रधान बनी रही, क्योंकि ये सब राजा लोग जैन धर्मानुयायी थे । पीछे अनेक धर्मानुयायी राजाओं के होने से यहां के मनुष्य गण भी भिन्न-भिन्न धर्मों के विश्वास वाले हो गये ॥१२॥ हिंसां स दूषयति हिन्दुरियं निरुक्तिः श्रीवीरराट्समनुयायिषु यत्प्रयुक्तिः । युक्ताऽथ वैदिकजनेष्वपि तत्प्रयोगः कैर्देहिभिः पुनरमानि न योग्ययोगः ॥ १३ ॥ 'जो हिंसा को दोष - युक्त कहे' वह हिन्दू है, ऐसी हिन्दू शब्द की निरुक्ति अहिंसा को ही धर्म मानने वाले वीर भगवान् के अनुयायी लोगों में ही युक्त होती थी । कितने ही लोग 'हिन्दु' इस शब्द का प्रयोग वैदिक जनों में करते हैं और उसे ही युक्ति युक्त बतलाते हैं । हमारी दृष्टि से तो उनका यह कथन युक्ति-संगत नहीं है ॥१३॥ अत्युद्धतत्वमिह वैदिकसम्प्रदायी प्राप्तोऽभवत् कुवलये वलयेऽभ्युपायी । तत्सन्निषेधनपरः परमार्हतस्तु विष्वग्भुवोऽधिकरणं कलहैकवस्तु ॥१४॥ मौर्य वंशी राजाओं के पश्चात् इस भूमण्डल पर वैदिक सम्प्रदायी पुनः पशु बलि और हिंसा प्रधान यज्ञों का प्रचार कर अति उद्धतता को प्राप्त हुए । तब उनका निषेध परम आर्हत ( अर्हन्त मतानुयायी ) जैन लोग करने लगे । इस प्रकार यह सारा देश एक मात्र कलह का स्थान बन गया ॥ १४॥ वीरस्य विक्रममुपेत्य तयोः पुनस्तु सम्पर्कजातमनुशासनमैक्यवस्तु । यद्वत्सुधासु निशयोर्जगतां हिताय श्रद्धाविधिः स्वयमिहाप्यनुरागकाय ॥१५॥ पुनः परम प्रतापशाली वीर विक्रमादित्य के शासन को प्राप्त कर उक्त दोनों सम्प्रदाय वाले एक ही अनुशासन में बद्ध हो मेलमिलाप से रहने लगे । जैसे कि चूना और हल्दी परस्पर मिलकर एक रंग को धारण कर लेते हैं ॥१५॥ स्नानाऽऽचमादिविधिमभ्युपगम्य तेन बह्ने रुपासनमुरीकृतमार्हतेन । यक्षादिकस्य परिपूजनमप्यनेनः साडम्बरं च विहितं मधुर मते नः ॥१६॥ इस राजा के शासन काल में वैदिक-सम्प्रदाय-मान्य स्नान, आचमन आदि बाह्य क्रिया-काण्ड की विधि को स्वीकार करके उन परम आर्हत-मतानुयायी जैन लोगों ने अग्नि की उपासना को भी अङ्गीकार कर लिया, यज्ञादिक व्यन्तर देवों की पूजन को भी इस निराडम्बर, मधुर दिगम्बर जैन मत में स्थान मिला और याज्ञिक वेदानुयायी जनों की अन्य भी बहुत सी बातों को जैन लोगों ने अपना लिया ॥१६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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