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________________ 12140 उस समय कितने ही वीर मतानुयायी साधुओं को स्वेत पट- सहित देखकर लोग उन्हें सितपट या श्वेताम्बर कहने लगे और वेद में भी जिनके गुणों का गान किया गया है ऐसे जगन्मान्य, सहज (जन्मजात) स्वाभाविक नग्न वेष के धारक अन्य साधुओं को नग्नाट या दिगम्बर कहने लगे ॥७॥ वीरस्य वर्त्मनि तकैः समकारि यत्नः स्थातुं यथावदथ कः खलु मर्त्यरत्नः । बाल्येऽपि यौवनवयस्यपि वृद्धतायां तुल्यत्वमेव वसुधावलयेसदाऽयात् ॥८॥ उन लोगों ने भगवान् महावीर के मार्ग पर यथावत् स्थिर रहने के लिए भरपूर प्रयत्न किया, किन्तु कालदोष से वे उस पर यथापूर्व स्थिर न रह सके। जैसे कि कोई पुरुष - रत्न ( श्रेष्ठ - मनुष्य) प्रयत्न करने पर भी बालपन में यौवन वय में और वृद्धावस्था में काल के निमित्त से होने वाले परिवर्तन में तुल्यता रखने के लिए इस भूतल पर कभी भी समर्थ नहीं हो सकता है ॥८॥ पार्श्वस्थसङ्गमवशेन दिगम्बरेषु शैथल्यमापतितमाशु तपः परेषु । तस्मात्तकेष्वकथिकैर्न वने निवासः कार्यः कलेरिति तमां समभूद्विलासः ॥ ९ ॥ शिथिलता को प्राप्त हुए समीपवर्ती साधुओं की संगति के वश से तप में तत्पर दिगम्बर साधुओं में भी शीघ्र शिथिलता आ गई । इसलिए उनमें भी कितने ही आचार्यों ने यह कहना प्रारम्भ कर दिया कि साधुओं को इस काल में वन में निवास नहीं करना चाहिए । सो यह कलिकाल का ही महान् विलास है, ऐसा जानना चाहिए ॥ ९ ॥ मन्दत्वमेवमभवत्तु यतीश्वरेषु तद्वच्छनैश्च गृहमेधिनुमाधरे षु । याद्दङ् नरे जगति दारवरेऽपि ताद्दक् भूयात् क्रमः किमिति नेति महात्मनां द्दक् ॥१०॥ इस प्रकार जैसे बड़े मुनि-यतीश्वरों में शिथिलता आई, उसी प्रकार धीरे-धीरे गृहस्थ श्रावकों में भी शिथिलता आ गई । सो महापुरुषों का कथन सत्य ही है कि जैसी प्रवृत्ति इस जगत् में मनुष्यों की होगी, वैसी ही प्रवृत्ति स्त्रीजनों में भी होगी ||१०|| श्रीभद्रबाहुपदपद्ममिलिन्दभावभाक् चन्द्रगुप्तनृपतिः स बभूव तावत् । सम्पूर्ण भारतवरस्य स एक शास्ता तद्राज्यकाल इह सम्पद एव तास्ताः ॥११॥ श्री भद्रबाहु के चरण-कमलों के भ्रमर-भाव को धारण करने वाला चन्द्रगुप्त नाम का राजा उस समय हुआ । वह सम्पूर्ण भारतवर्ष का अद्वितीय शासक था । उसके राज्य काल में यहां पर प्रजा को सुख देने वाली सभी प्रकार की सम्पत्तियां प्राप्त थी ॥ ११ ॥ मौर्यस्य पुत्रमथ पौत्रमुपेत्य हिन्दुस्थानस्य संस्कृतिरभूदधुनैकबिन्दुः | पश्चादनेकनरपालतया विभिन्न विश्वासासवाञ्जनगणः समभूतु खिन्नः ॥१२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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