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त्यक्तं कतौ पशुबलेः करणं परेण निहिँसनैकसमये सुसमादरेण । देवानुपेक्ष्य नवरस्तवनाय चेतः कृत्वाऽवतारविधिरुत्कलितोऽथवेतः ॥१७॥
इधर यज्ञों में पशु-बलि करने वाले वैदिक जनों ने भी अहिंसा मय जैन धर्म में अति आदरभाव प्रकट करके यज्ञ में पशुओं की बलि करना छोड़ दिया और नाना प्रकार के देवी-देवताओं की उपेक्षा करके श्रेष्ठ मनुष्यों के स्तवन में अपना चित्त लगा कर मानव पूजा को स्थान दिया और तभी से उन्होंने महापुरुषों के अवतार लेने की कल्पना भी की ॥१७॥
जातीयतामनुबभूव च जैनधर्मः विश्वस्य यो निगदितः कलितुं सुशर्म । आगारवर्तिषु यतिष्वपि हन्त खेद स्तेनाऽऽश्वभूदिह तमां गण-गच्छभेदः ॥१८॥
जैन और वैदिक जनों के इस पारस्परिक आदान-प्रदान का यह फल हुआ कि विश्व का कल्याण करने वाला यह जैन धर्म जातीयता का अनुभव करने लगा अर्थात् वह धर्म न रहकर सम्प्रदाय रूप से परिणत हो गया और उसमें अनेक जाति-उपजातियों का प्रादुर्भाव हो गया । अत्यन्त दु:ख की बात है कि इसके पश्चात् गृहस्थों में और मुनियों में शीघ्र ही गण-गच्छ के भेद ने स्थान प्राप्त किया और एक जैन धर्म अनेक गण-गच्छ के भेदों में विभक्त हो गया ॥१८॥
तस्मात्स्वपक्षपरिरक्षणवर्धनायाऽ हङ्कारितापि जगतां हृदयेऽभ्युपायात् । अन्यत्र तेन विचिकित्सनमप्यकारि सत्यादपेतपरताशनकैरधारि ॥१९॥
जैन धर्म में गण-गच्छ के भेद होने से प्रत्येक पक्ष को अपने पक्ष के रीति-रिवाजों की रक्षा करने का भाव प्रकट हुआ, इससे लोगों के हृदय में अहङ्कार का भाव भी उदित हुआ, अर्थात् प्रत्येक पक्ष अपने ही रीति-रिवाजों को श्रेष्ठ मानने लगा और अन्य पक्ष के रीति-रिवाजों को अपने से हलका मान कर उससे ग्लानि करने लगा । इस प्रकार धीरे-धीरे लोग सत्य से दूर होते गये ॥१९॥
तस्माद् दुराग्रहवतीर्षणशीलताऽऽपि अन्योन्यतः कलहकारितया सदापि । एवं मिथो हतितया बलहानितों क्षेत्रे बभूव दुरितस्य न सम्भवो न ॥२०॥
इसगण-गच्छ-भेद के फल स्वरूप जैन धर्म-धारकों में दुराग्रह और ईर्ष्या ने स्थान प्राप्त किया, तथा परस्पर में कलहकारिता भी बढ़ी । इस प्रकार जैनों की पारस्परिक लड़ाई से उनके सामाजिक बल (शक्ति) की हानि हुई और हमारे इस पवित्र भारतवर्ष में अनेक प्रकार की बुराइयों ने जन्म लिया । २०॥
धर्मः समस्तजनताहितकारि वस्तु यद्वाह्यडम्बरमतीत्य सदन्तरस्तु । तस्मायनेकविधरूपमदायि लोकै यस्मिन् विलिप्यत उपेत्य सतां मनोऽकैः ॥२१॥
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