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________________ रग20नाररररररररररररररररर वाले सुधाकर (चन्द्रमा) की किरणों का सम्पर्क पाने से दूध जैसा स्वच्छ एवं सुस्वादु बन गया । नीतिकार कहते हैं कि जाति की अपेक्षा संगति ही बलवती होती है ॥४॥ विलोक्यते हंसरवः समन्तान्मौनं पुनर्भोगभुजो यदन्तात् । दिवं समाकामति सत्समूहः सेयं शरद्योगिसभाऽस्मदूहः ॥५॥ कवि कहते हैं कि हमारे विचार से यह शरद्-ऋतु योगियों की सभा के समान प्रतीत होती है जैसे योगियों की सभा में 'अहं सः' (मैं वही परमात्म-रूप हूँ) इस प्रकार ध्यान में प्रकट होने वाला शब्द होता है, उसी प्रकार इस शरद्-ऋतु में हंसों का सुन्दर शब्द प्रकट होने लगता है । तथा जैसे योगियों की सभा में भोगों को भोगने वाले भोगी-जन मौन-धारण करते हैं, उसी प्रकार इस शरद्ऋतु में भोगों अर्थात सर्पो को खा जाने वाले मयूर गण बोलना बन्द कर मौन धारण कर लेते हैं । इसी प्रकार जैसे योगियों की सभा में सज्जनों का समूह स्वर्ग पाने का प्रयत्न करता है, उसी प्रकार इस शरद् ऋतु में तारागण आकाश में चमकते हुए आगे बढ़ने का प्रयत्न करते हैं ॥५॥ स्फुरत्पयोजातमुखी स्वभावादङ्के शयालीन्द्रकुशेशया वा । शरच्छूि यं दृष्टमपङ्कपात्री विस्फालिताक्षीव विभाति धात्री ॥६॥ शरद्-ऋतु में पृथ्वी पर कमल खिलने लगते हैं और उन पर आकर भौरें बैठते हैं, तथा सारी पृथ्वी कीचड़-रहित हो जाती है । इस स्थिति को देखकर कवि उत्प्रेक्षा करते हुए कहते हैं कि निर्मल पात्र वाली पृथ्वी विकसित कमल-मुखी होकर भ्रमर रूप नेत्रों को धारण करती हुई मानों अपने नेत्रौं को खोल कर शरद् ऋतु की शोभा देखती हुई शोभित हो रही है ॥६॥ इत प्रसादः कु मुदोदयस्य श्रीतारकाणान्तु ततो वितानम् । मरालबालस्तत इन्दुचालः सरोजलं व्योमतलं समानम् ॥७॥ शरद् ऋतु में सरोवर का जल और गगन-तल एक समान दिखते हैं । देखो-इधर सरोवर में तो कुमुद (श्वेत कमल) के उदय का प्रसाद होता है, अर्थात् श्वेत कमल खिल जाते हैं और उधर ताराओं की कान्ति का विस्तार हो जाता है । इधर सरोवर में मराल (हंस) का बालक चलता हुआ दृष्टिगोचर होता है और उधर चन्द्रमा की चाल दृष्टिगोचर होती है । नभोगृहे प्राग्विषदैरुदूढे चान्द्रीचयैः क्षालननामगूढे । विकीर्य सत्तारकतन्दुलानीन्दुदीपमञ्चेत्क्षणदा त्विदानीम् ॥८॥ जो आकाश रूप गृह पहिले विष (जल) दायी मेघों से उपगूढ़ (व्याप्त) अर्थात् विष-दूषित था, वह अब चन्द्रिका रूप जल-समूह से प्रक्षालित हो गया है । अतएव उसमें इस समय मंगल के लिए ही मानों रात्रि ने चन्द्रमा रूप दीपक रखकर तारा रूप चांवलों को बिखेर दिया है ॥८॥ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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