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तारापदेशान्मणिमुष्ठिनारात्प्रतारयन्ती विगताधिकारा
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सोमं शरत्सम्मुखमीक्षमाणा रुषैव वर्षा तु कृतप्राणा ॥९॥
सोम (चन्द्रमा) को शरद् ऋतु के सम्मुख गया हुआ देखकर अपने अधिकार से रहित हुई वर्षा ऋतु मानों रोष से ताराओं के बहाने मुट्ठी में भरे हुए मणियों को फेंक कर प्रतारणा करती हुई वहां से शीघ्र चली गई ॥९॥
जिघांसुरप्येणगणः शुभानामुपान्तभृच्छालिक बालिकानाम् ॥ सुगीतिरीतिश्रवणे शितेति न शालिमालं स पुनः समेति ॥ १० ॥
धान्य चरने के लिए आया हुआ मृग-समूह धान्य रखाने वाली सुन्दर बालिकाओं के द्वारा गाये जाने वाले मधुर गीतों के सुनने में इस प्रकार तल्लीन हो जाता है कि वह धान्य को चरना भूल जाता है और फिर धान्य की क्यारियों में नहीं आता है ||१०||
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जिता जिताम्भोधरसार भासां रुतैरुतामी पततामुदासाः उन्मूलयन्ति स्वतनूरुहाणि शिखावला आश्विनमासि तानि
॥११॥
इस शारदीय आश्विन मास में मेघों की भी गम्भीर वाणी को जीतने वाले हंसों के शब्दों से हम लोग पराजित हो गये हैं, यह सोच करके ही मानों उदास हुए मयूर गण अपने शरीर की पांखों को उखाड़ उखाड़ कर फेंकने लगते हैं ॥ ११ ॥
क्षेत्रेभ्य आकृष्य फलं खलेषु निक्षिप्यते चेत्कृषकैस्तु तेषु । फलेशवेषः कुनरेशदेशः को वाऽनयोरस्तु मिथो विशेषः ॥ १२ ॥
जब किसान लोग उत्पन्न हुई धान्य को खेतों में से ला- लाकर खलों (खलियानों और पक्षान्तर में दुर्जन पुरुषों) में फेंक रहे हैं, तब यह शरद् काल खोटे राजा के देश के समान है, क्योंकि उन दोनों में परस्पर क्या विशेषता है ? अर्थात् कुछ भी नहीं ॥१२॥
स्मरः शरद्यस्ति जनेषु कोपी तपस्विनां धैर्यगुणो व्यलोपि । यतो दिनेशः समुपैति कन्याराशिं किलासीमतपोधनोऽपि ॥१३॥
शरद् ऋतु में कामदेव मनुष्यों पर कुपित होता है और तपस्वी जनों के भी धैर्य गुण का लोप कर देता है । क्योंकि असीम तपोधन वाला अर्थात् प्रचुर ताप को धारण करने वाला सूर्य भी इस समय सिंह राशि को छोड़ कर कन्या राशि को प्राप्त होता है ॥१३॥
भावार्थ सूर्य जैसा तेजस्वी देव भी इस शरद् काल में कामासक्त होकर अपनी सिंह वृत्ति को छोड़ कन्याओं के समूह पर आ पहुँचता है । यह आश्चर्य की बात है ।
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