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शिवश्रियं यः परिणेतुमिद्धः समाश्रितो वल्लभतां प्रसिद्धः । धरातले वीक्षितुमर्हतां तं पतिं शरत् प्राप किलैककान्तम् ॥१॥
अथैकविंशः सर्गः
जो शिव-लक्ष्मी को विवाहने के लिये उद्यत हैं, सर्व जनों की वल्लभता को प्राप्त हैं, जगत् में प्रसिद्ध हैं, अरहन्तों के स्वामी हैं और अद्वितीय सुन्दर हैं, ऐसे भगवान् महावीर कोदेखने के लिए ही मानो शरद् ऋतु धरातल पर अवतीर्ण हुई ॥१॥
परिस्फुरत्तारकता ययाऽऽपि सिताम्बरा गुप्तपयोधरामि । जलाशयं सम्प्रति मोदयन्ती शरन्नवोढे यमथाव्रजन्ती
॥२॥
यह शरद्-ऋतु नव-विवाहिता स्त्री के समान आती हुई ज्ञात हो रही है । जैसे नवोढ़ा स्त्री के नेत्रों की तारकाएं (पुतलियां) चंचल होती हुई चमकती हैं, उसी प्रकार यह शरद् ऋतु भी आकाश में ताराओं की चमक से युक्त हैं । जैसे नवोढा वधू स्वच्छ वस्त्र धारण करती हैं, उसी प्रकार यह शरद्ऋतु भी स्वच्छ आकाश को धारण कर रही है । जैसे नवोढा अपने पयोधरों (स्तनों) को गुप्त रखती है, उसी प्रकार यह शरद् ऋतु भी पयोधरों (बादलों) को अपने भीतर छिपा कर रख रही है । और जैसे नवोढा लोगों के हृदयों को प्रमुदित करती है, उसी प्रकार यह शरद् ऋतु भी जलाशयों में कमलों को विकसित कर रही है ॥२॥
परिस्फुरत्वष्ठिशरद् धराऽसौ जाता परिभ्रष्टपयोधरा द्यौः ।
इतीव सन्तप्ततया गभस्तिः स्वयं यमाशायुगयं समस्ति ॥३॥
शरद् ऋतु में साठी धान्य पक जाती है, आकाश बादलों से रहित हो जाता है और सूर्य उत्तरायण से दक्षिणायन हो जाता है । इस स्थिति को लक्ष्य में रख कर इस श्लोक में व्यंग्य किया गया है कि अपनी धरा रूप स्त्री को साठ वर्ष की हुई देखकर, तथा द्यौ नाम की स्त्री को भ्रष्ट - पयोधरा ( लटकते हुए स्तनों वाली ) देखकर ही मानों सूर्य सन्तप्त चित्त होकर स्वयं भी यमपुर जाने के लिए तत्पर हो रहा है ||३||
पुरोदकं
यद्विषदोद्भवत्वात्सुधाकर स्याद्यकरै धृतत्वात्
पयस्तंदेवास्ति विभूतिपाते बलीयसी सङ्ग तिरेव जाते:
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॥४॥
वर्षा ऋतु में जो जल विषद अर्थात् मेघों से, पक्षान्तर में विष देने वालों से उत्पन्न होने के कारण लोगों को अतीव कष्टकारक प्रतीत होता था, वही अब शरद् ऋतु में सुधा (अमृत) मय कर ( हाथ )
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