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________________ रररररररररररररररररा202रररररररररररररररररर हमारे जैसा कोई भी संसारी मनुष्य सेना, वन आदि एक पद को ही सुनकर हाथी, घोड़े, रथ, पियादों के समूह को वा नाना प्रकार के वृक्षों के समुदाय को एक साथ जान लेता है, फिर सर्वज्ञ प्रभु का अतीन्द्रिय ज्ञान यदि समस्त वस्तुओं को एक साथ जान लेवे, तो इसमें आप लोगों को कौनसा विरोध प्रतीत होता है ॥१३॥ समेति भोज्यं युगपन्मनस्तु मुखं क्रमेणात्ति तदेव वस्तु । मुक्तान्ययोरीद्दशमेव भेदमुवैमि भो सज्जन नष्टखेदः ॥१४॥ हे संजनो, देखो-थाली में परोसे गये समस्त भोज्य पदार्थों को हमारा मन तो एक साथ ही ग्रहण कर लेता है, अर्थात् प्रत्येक वस्तु के भिन्न-भिन्न स्वादों को एक साथ जान लेता है, किन्तु उन्हीं वस्तुओं को मुख एक-एक ग्रास के क्रम से ही खाता है । बस, इसी प्रकार का भेद आवरण-विमुक्त अतीन्द्रिय ज्ञानियों के और आवरणयुक्त इन्द्रिय ज्ञान वाले अन्य लोगों के ज्ञान में दुखातीत सर्वज्ञ ने कहा है, ऐसा जानना चाहिए ॥१४॥ उपस्थिते वस्तुनि वित्तिरस्तु नैकान्ततो वाक्यमिदं सुवस्तु । स्वप्नादिसिद्धेरिह विभ्रमस्तु भो भद्र ! देशादिकृतः समस्तु ॥१५॥ यदि कहा जाय कि वर्तमान काल में उपस्थित वस्तु का तो ज्ञान होना ठीक है, किन्तु जो वस्तु है ही नहीं, ऐसी भूत या भविष्यत्कालीन अविद्यमान वस्तुओं का ज्ञान होना कैसे संभव है ? तो यह कहना भी एकान्त से ठीक नहीं है, क्योंकि स्वप्नादि से अविद्यमान भी वस्तुओं का ज्ञान होना सिद्ध है । यदि कहा जाय कि स्वप्नादि का ज्ञान तो विभ्रम रूप है, मिथ्या है, सो हे भद्र पुरुष यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि स्वप्न में देखी गई वस्तु का देश-कालादि-कृत भेद हो सकता है, किन्तु सर्वथा वह ज्ञान मिथ्या नहीं होता ॥१५॥ भावार्थ - स्वप्न में देखी गई वस्तु भले ही उस समय उस देश में न हो, किन्तु कहीं न कहीं किसी देश में और किसी काल में तो उसका अस्तित्व है ही । इसलिए वह सर्वथा मिथ्या रूप नहीं यद्वा स्मृतेः साम्प्रतमर्थजातिः किमस्ति या सङ्गतये विभाति । सा चेदसत्याऽनुमितिः कथं स्यादेवन्तु चार्वाकमतप्रशंसा ॥१६॥ अथवा स्वप्न ज्ञान को रहने दो । स्मरम्ण ज्ञान का विषयभूत पदार्थ- समूह क्या वर्तमान में विद्यमान है । वह भी तो देशान्तर और कालान्तर में ही रहता है । फिर अविद्यमान वस्तु के ज्ञान को सत्य माने बिना स्मृति ज्ञान के प्रमाणता की संगति के लिए क्या आधार मानोगे । यदि कहा जाय कि स्मृति तो असत्य है, प्रमाण रूप नहीं है, तो फिर अनुमान ज्ञान के प्रमाणता कैसे मानी जा सकेगी ? क्योंकि कार्य-कारण के अविनाभावी सम्बन्ध के स्मरणपूर्वक ही तो अनुमान ज्ञान उत्पन्न होता है । यदि कहो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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