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________________ 201 यथैति दूरेक्षणयन्त्रशक्त्या चन्द्रादिलोकं किमु योगभक्त्या । स्वर्गादिदृष्टावधुनातियोगः सोऽतीन्द्रियो यत्र किलोपयोगः ॥९॥ देखो - दूर-दर्शक यन्त्र की शक्ति से चन्द्रलोक आदि में स्थित वस्तुओं को आज मनुष्य प्रत्यक्ष देख रहे हैं । फिर योग की शक्ति से स्वर्ग-नरक आदि के देखने में क्या आपत्ति आती है ? योगी पुरुष अतीन्द्रिय ज्ञान के धारक होते हैं, वे स्वर्गादि के देखने में उस अतीन्द्रिय ज्ञान का उपयोग करते हैं, ऐसा मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए ॥ ९ ॥ एको न सूचीमपि दृष्टुमर्हः विमन्ददृष्टिः कलितात्मगर्हः । परो नरश्चेत् त्रसरेणुदृक्कः किन्नाम न स्यादणुमादधत्कः ॥१०॥ एक मन्द दृष्टिवाला पुरुष सुई को भी देखने के लिए समर्थ नहीं है, इसलिए वह अपनी मन्द दृष्टि की निन्दा करता है और दूसरा सूक्ष्म दृष्टि वाला मनुष्य त्रसरेणु (अति सूक्ष्म रजांश) को भी देखता है और अपनी सूक्ष्म दृष्टि पर गर्व करता है । फिर योगदृष्टि से कोई पुरुष परमाणु जैसी सूक्ष्म वस्तु को क्यों नहीं जान लेगा ॥१०॥ न्यगादि वेदे यदि सर्ववित्कः निषेधयेत्तं च पुनः सुचित्कः । श्रुत्यैव स स्यादिति तूपक्लृप्तिः शाणेन किं वा दृषदोऽपि दृप्तिः ॥ ११ ॥ यदि वेद में सर्ववेत्ता होने का उल्लेख पाया जाता हैं, तो फिर कौन सुचेता पुरुष उस सर्वज्ञ का निषेध करेगा । यदि कहा जाय कि श्रुति (वेद-व - वाक्य) से ही वह सर्वज्ञ हो सकता है, अन्यथा नहीं, तो यह तभी सम्भव है, जब कि मनुष्य में सर्वज्ञ होने की शक्ति विद्यमान हो । देखो-मणि के भीतर चमक होने पर ही वह शाण से प्रकट होती है। क्या साधारण पाषाण में वह चमक शाण से प्रकट हो सकती है ? नहीं । इसका अर्थ यही है कि मनुष्य में जब सर्वज्ञ बनने की शक्ति है, तभी वह श्रुति के निमित्त से प्रकट हो सकती है ॥११॥ सूची क्रमादञ्चति कौतुकानि करण्डके तत्क्षण एव तानि । भवन्ति तद्भुवि नस्तु बोध एकैकशो मुक्त इयान्न रोधः ॥१२॥ जैसे सूई माला बनाते समय क्रम-क्रम से एक-एक पुष्प को ग्रहण करती है किन्तु हमारी दृष्टि तो टोकरी में रखे हुए समस्त पुष्पों को एक साथ ही एक समय में ग्रहण कर लेती है। इसी प्रकार हमारे छद्मस्थ जीवों का इन्द्रिय-ज्ञान क्रम-कम से एक-एक पदार्थ को जानता है । किन्तु जिनका ज्ञान आवरण से मुक्त हो गया है, वे समस्त पदार्थों को एक साथ जान लेते हैं, इसमें कोई विरोध नहीं है ॥१२॥ किन्नानुगृह्णाति जगज्जनोऽपि सेना - वनाद्येकपदन्तु कोऽपि । समस्तवस्तून्युपयातु तद्वद् विरोधनं भाति जनाः कियद्वः ॥१३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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