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________________ हरररररररररर200rrrrrrrrrr भविष्यतामत्र सतां गतानां तथा प्रणालीं दधतः प्रतानाम् । ज्ञानस्य माहात्म्यमसावबाधा-वृत्तेः पवित्रं भगवानथाऽधात् ॥५॥ भविष्य में होने वाले, वर्तमान में विद्यमान और भूतकाल में उत्पन्न हो चुके ऐसे त्रैकालिक पदार्थों की परम्परा को जानना निरावरण ज्ञान का माहात्म्य है । ज्ञान के आवरण दूर हो जाने से सार्वकालिक वस्तुओं को जानने वाले पवित्र ज्ञान को सर्वज्ञ भगवान् धारण करते हैं, अतः वे सर्व के ज्ञाता होते हैं। भूतं तथा भावि खपुष्पवद्वा निवेद्यमानोऽपि जनोऽस्त्वसद्वाक् । तमग्नये त्विन्धनमासमस्य जलायितत्त्वं करके षु - पश्यन् ॥६॥ जो कार्य हो चुका, या आगे होने वाला है वह आकाश-कुसुम के समान असद्-रूप है और असत् पदार्थ को विषय करने वाला ज्ञान सम्यग्ज्ञान कैसे हो सकता है ? ऐसा कहने वाला मनुष्य भी सम्यक् भाषी नहीं है, क्योंकि अग्नि के लिए इन्धन एकत्रित करने वाला मनुष्य इन्धन में आगे होने वाली अग्नि पर्याय को देखता है और करकों (ओलों) में जल तत्त्व को वह देखता है, अर्थात् वह जानता है कि जल से ओले बने हुए हैं । फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि भूत और भावी वस्तु असद्-रूप है, कुछ भी नहीं है ॥६॥ त्रैकालिकं चाक्षमतिश्च वेत्ति कुतोऽन्यथा वार्थ इतः क्रियेति । अस्माकमासाद्य भवेदकम्पा नात्वा प्रजा पातुमुपैति कंका ॥७॥ उपर्युक्त कथन से यह बात सिद्ध होती है कि सर्वज्ञ के ज्ञान की तो बात ही क्या है, हमारातुम्हारा इन्द्रिय जन्य ज्ञान भी कथंचित् कुछ त्रिकालवर्ती वस्तुओं को जानता है । अन्यथा मनुष्य किसी भी पदार्थ से कोई काम नहीं ले सकेगा । देखो- पानी को देखकर प्यासा मनुष्य क्या उसे पीने के लिए नहीं दौड़ता ? अर्थात् दौड़ता ही है । इसका अभिप्राय यही है कि पानी के देखने के साथ ही उसके पीने से मिटने वाली प्यास का भी ज्ञान उसे हो गया है । तभी तो वह निःशङ्क होकर उसे पीवेगा और अपनी प्यास को बुझावेगा ॥७॥ प्रास्कायिकोऽङ्गान्तरितं यथेति सौगन्धिको भूमितलस्थमेति । को विस्मयस्तत्र पुनर्यतीशः प्रच्छन्नवस्तूचितसम्मतिः सः ॥८॥ इसी प्रकार प्रच्छन्न (गुप्त) वस्तुओं का ज्ञान भी लोगों को होता हुआ देखा जाता है । देखोप्रास्कायिक-(अङ्ग-निरीक्षक) एक्स रे यन्त्र के द्वारा शरीर के भीतर छिपी हुई वस्तु को देख लेता है और सौगन्धिक (भूमि को सूंघ कर जानने वाला) मनुष्य पृथ्वी के भीतर छिपे या दबे हुए पदार्थों को जान लेता है । फिर यदि अतीन्द्रिय ज्ञान का धारक यतीश्वर देश, काल और भूमि आदि से प्रच्छन्न सूक्ष्म, अन्तरित और दूर-वर्ती पदार्थों को जान लेता है, तो इसमें विस्मय की क्या बात है ॥८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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