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अथ विंशतितमः सर्गः
जिना जयन्तूत्तमसौख्यकूपाः सम्मोहदंशाय समुत्थधूपाः । विश्वस्य विज्ञानि पदैकभूपा दर्पादिसर्पाय तु तार्क्ष्यरूपाः ॥१ ॥
जो उत्तम अतीन्द्रिय सुख के भण्डार हैं, मोह रूप डांस-मच्छरों के लिए दशांगी धूप से उठे हुए धूम्र के समान हैं, जिन्होंने विश्व भर के ज्ञेय पदार्थों को जान लेने से सर्वज्ञ पद को प्राप्त कर लिया है और जो दर्प (अहंकार) मात्सर्य आदि सर्पों के लिए गरुड़ स्वरूप हैं, ऐसे जगज्जयी जिनेन्द्र देव जयवन्त रहें ॥१॥
समुत्थितः स्नेहरुडादिदोषः पटे ऽञ्जनादीव तदन्यपोषः । निरीहता फेनिलतोऽपसार्य सन्तोषवारीत्युचितेन चार्य ! ॥ २ ॥
जैसे श्वेत वस्त्र में अंजन (काजल) आदि के निमित्त से मलिनता आ जाती है, उसी प्रकार निर्मल आत्मा में भी स्नेह (राग) द्वेष आदि दोष भी अन्य कारणों से उत्पन्न हुए समझना चाहिए। जैसे वस्त्र की कालिमा साबुन और निर्मल जल से दूर की जाती है, उसी प्रकार हे आर्य, निरीहता ( वीतराग ) रूप फेनिल (साबुन) और सन्तोष रूप जल से आत्मा की मलिनता को दूर करना चाहिए ॥२॥
नादिभिर्वक्र मथाम्बु यद्वन्नदस्य ते ज्ञानमिदं च तद्वत् । मदादिभिर्भाति ततो न वस्तु सम्वेदनायोचितमेतदस्तु ॥३॥
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जैसे मगरमच्छों के द्वारा उन्मथित जल वाले नदी-सरोवरादिक के अन्तस्तल में पड़ी हुई वस्तुएं स्पष्ट दृष्टिगोचर नहीं होती, उसी प्रकार मद-मात्सर्यादि के द्वारा उन्मथित तेरा यह ज्ञान भी अपने भीतर प्रतिबिम्बित समस्त ज्ञेयों को जानने में असमर्थ हो रहा है ॥३॥
नैश्चल्यमास्वा विलसेद्यदा तु तदा समस्तं जगत्र भातु । यदीक्ष्यतामिन्धननाम बाह्यं तदेव भूयादुत बह्निदाह्यम् ॥४॥
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जब यह आत्मा क्षोभ - रहित निश्चलता को प्राप्त होकर विलसित होता है, तब उसमें प्रतिबिम्बित यह समस्त जगत् स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगता है, क्योंकि ज्ञेय पदार्थों को जानना ही ज्ञान रूप आत्मा का स्वभाव है । जैसे बाहिरी दाह्य इन्धन को जलाना दाहक रूप अग्नि का काम है, उसी प्रकार बाहिरी समस्त ज्ञेयों को जानना ज्ञायक रूप आत्मा का स्वभाव है ||४||
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