________________
203
कि अनुमान ज्ञान भी अवस्तु है-अप्रमाण रूप है तब तो चार्वाक (नास्तिक) मत ही प्रंशसनीय हो जाताहै, जो कि केवल एक प्रत्यक्ष वस्तु के ज्ञान को ही प्रमाण मानता है ॥ १६ ॥
स चात्मनोऽभीष्टमनिष्टहानि-पुरस्सरं केन करोतु मानी । ततोऽनुमापि प्रतिपादनीया या चाऽविनाभूस्मृतितो हि जायात् ॥१७॥
यदि कहा जाय कि अनुमान ज्ञान को प्रमाण नहीं मानना हमें अभीष्ट है, तो हम पूछते हैं कि फिर अनुमान के बिना आप चार्वाक लोगों के लिए अनिष्ट परलोक आदिका निषेध कैसे संभव होगा? इसलिये चार्वाकों को भी अपने अभीष्ट सिद्धि के लिये अनुमान को प्रमाण मानने पर स्मृति को प्रमाण मानना ही पड़ेगा, क्योंकि अनुमान तो साध्य-साधन के अविनाभाव सम्बन्ध की स्मृति से ही जीता है। इस प्रकार जब बीती हुई बात को जानने वाला हम लोगों का स्मरण- ज्ञान प्रमाण सिद्ध होता है, भूत और भविष्य की बातों को जानने वाला सर्वज्ञ का अतीन्द्रिय ज्ञान कैसे प्रमाण न माना जायगा ? अतएव सर्वज्ञ के भूत-भावी वस्तु-विषयक ज्ञान को प्रमाण मानना ही चाहिए ||१७||
तब
श्रुताधिगम्यं प्रतिपद्य वस्तु नाध्यक्षमिच्छेदिति कोऽयमस्तु । दुराग्रहोsपास्य गुरुं विनेयमभीच्छतो यद्वदहो प्रणेयः
॥१८॥
परोक्ष ज्योतिष शास्त्र आदि से ज्ञात होने वाले सूर्य ग्रहण, चन्द्र ग्रहण आदि बातों को स्वीकार करके भी यदि कोई अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा ज्ञात होने वाली वस्तुओं को स्वीकार न करें, तो उसे दुराग्रह के सिवाय और क्या कहा जाय ? क्योंकि प्रत्यक्षदृष्टा के वचनों को ही शास्त्र कहते हैं। इसलिए प्रत्यक्ष-दृष्टा सर्वज्ञ को स्वीकार करना चाहिए। जैसे गुरु के बिना शिष्य नहीं हो सकता, उसी प्रकार सर्वदर्शी शास्ता के बिना शास्त्र का होना संभव नहीं है ||१८||
यदस्ति वस्तूदितनामधेयं ज्ञेयं न भूयात्तु कुतः प्रणेयम् । तदध्यक्षमपीति नीते स्तत्पूर्वक त्वादपरप्रणीते :
ज्ञेयं
॥१९॥
जो कोई भी वस्तु है, वह ज्ञेय है, और ज्ञेय को किसी न किसी ज्ञान का विषय अवश्य होना चाहिए । यदि वस्तु को ज्ञेय न माना जाय, तो उसको प्रणेय (ज्ञातव्य या वर्णन) कैसे माना जा सकेगा। अतएव प्रत्येक वस्तु ज्ञेय है, वह किसी न किसी के प्रत्यक्ष होना ही चाहिए। क्योंकि अन्य सब ज्ञानों का मूल आधार तो प्रत्यक्ष ज्ञान ही है । इस प्रत्यक्ष ज्ञान पूर्वक ही अन्य ज्ञान प्रस्तुत होते हैं । अतः सम्पूर्ण पदार्थों का प्रत्यक्ष दृष्टा भी कोई न कोई अवश्य है, यह बात निश्चित होती है ॥१९॥
1
नालोक सापेक्षमुलूक जातेर्ज्ञानं दगुत्पन्नमहो यथा ते नासन्नतापेक्ष्यमिदं भविन्नः प्रत्यक्षमीशस्य समस्तु किन्न ॥२०॥ यदि कहा जाय कि आलोक (प्रकाश) आदि बाहिरी साधनों की सहायता से ही हमें पदार्थों का ज्ञान होता है, तब उसके बिना अतीन्द्रिय ज्ञानी को पदार्थों का ज्ञान कैसे हो जायगा ? सो यह कहना
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org