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________________ 7 से सर्वथा ऐसा ही नहीं मान लेना चाहिए कि उच्च कुल में जन्म लेने वाले लोगों के ही सदाचारपना पाया जायगा, हीन कुल में जन्म लेने वालों के नहीं उच्च या नीच कुल में जन्म होना पूर्व जन्म संचित संस्कारों का फल है, अर्थात् दैवाधीन है। किन्तु वर्तमान में उच्च या नीच कार्य करना अपने पुरुषार्थ के अधीन है। इसी संदर्भ में ग्रन्थकार ने आज के प्रचलित विवाह बन्धनों की ओर संकेत करते हुए बताया है कि देखो- वसुदेव ने अपने चचेरे भाई की पुत्री अर्थात् आज के शब्दों में अपनी भतीजी देवकी से विवाह किया और उससे जगत् प्रसिद्ध श्री कृष्ण नारायण का जन्म हुआ। इसके साथ ही यहां यह भी उल्लेखनीय है कि भ. नेमिनाथ का विवाह भी उन्हीं उग्रसेन की लड़की राजमती से होने जा रहा था। जो श्री कृष्ण के षड्यंत्र से बन्धन-बद्ध पशुओं को देख कर नेमिनाथ के संसार से विरक्त हो जाने से संभव नहीं हो सका। नेमिनाथ और राजमती परस्पर चचेरे भाई बहिन थे । वसुदेव और उग्रसेन का वंश परिचय इस प्रकार है यदु समुद्रविजय अक्षोभ्य स्तिमित हिमवान् विजय नेमिनाथ अन्धक वृष्णि अचल - Jain Education International धारण पूरण अभिचन्द्र - वसुदेव राजमती उक्त वंश परिचय से बिलकुल स्पष्ट है कि चतुर्थ काल में आज के समान कोई वैवाहिक बन्धन नहीं था और योग्य लड़के लड़कियों का विवाह सम्बन्ध कर दिया जाता था । इसी सर्ग के २१ वें श्लोक में वेद के संकलयिता जिन व्यास ऋषि का उल्लेख किया गया है, वे स्वयं ही धीवरी (कहारिन) से उत्पन्न हुए थे, जिसका प्रमाण अभी ऊपर दिया जा चुका है । आगे इसी सर्ग के ३९ वें श्लोक में हरिषेण कथा कोष के एक कथानक का उल्लेख कर बताया गया है कि राजा ने यमपाश चाण्डाल के साथ उसकी अहिंसक प्रवृत्ति से हर्षित होकर अपनी पुत्री का विवाह कर दिया था । यहाँ पर विवाह के इस प्रकरण की, तथा इसी प्रकार के कुछ अन्य उल्लोखों की चर्चा का भी यह अभिप्राय है कि साधारणतः राजमार्ग तो यही रहा है कि मनुष्य अपने कुल, गुण, शील, रूप और विद्या आदि के अनुरूप हो योग्य कन्या से विवाह करते थे और आज भी करना चाहिए । परन्तु अपवाद सदा रहे हैं । इसलिए इस विषय में भी सर्वथा एकान्त मार्ग का आश्रय नहीं लेना चाहिए । श्रीकृष्ण भोजक वृष्णि देवकी, उग्रसेन महासेन देवसेन इस प्रकार इस सर्ग में जाति और कुल की यथार्थता को बता कर अन्त में कहा गया है कि " धर्म - धारण करने में या आत्म-विकास करने में किसी एक व्यक्ति या जाति का ही अधिकार नहीं है। किन्तु जो उत्तम धर्म का अनुष्ठान करता है, वह सबका आदरणीय बन जाता है । For Private & Personal Use Only अठारहवें सर्ग में काल ही महत्ता बतलाते हुए इस अवसर्पिणी काल के प्राम्भिक तीन कालों को हिन्दू मान्यतानुसार सत् युग बताया गया है, जिनमें कि भोग भूमि की रचना रहती है । जब तीसरे काल के अन्त में कल्पवृक्ष नष्ट होने लगे और कुलकरों का जन्म हुआ, तब से त्रेतायुग का प्रारम्भ हुआ । उस समय अन्तिम कुलकर नाभिराय से आदि तीर्थंकर म. ऋषभदेव का जन्म हुआ। उन्होंने कल्पवृक्षों के लोप हो जाने पर भूख-प्यास से पीड़ित प्रजा को जीवन के उपाज बतलाये प्रजा का संरक्षण करने वालों को क्षत्रिय संज्ञा दी, प्रजा का भरण-पोषण करने वालों को वैश्य www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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