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मानव कर्तव्यों को बतलाते हुए आगे कहा गया है कि दूसरों के दोषों को कभी प्रकट न करे, उनके विषय में सर्वथा मौन ही धारण करे । जहां तक बने, दूसरों का पालन-पोषण ही करे । दूसरे के गुणों को सादर स्वीकार करे उनका अनुसरण करे । आपत्ति आने पर हाय-हाय न करे और न्याय-मार्ग से कभी च्युत न होवे । - इस सन्दर्भ में एक बहु मूल्य बात कही गई है कि स्वार्थ (आत्म-प्रयोजन) से च्युत होना आत्म-विनाश का कारण है और परार्थ से च्युत होना सम्प्रदाय के विरुद्ध है । इसलिए मनुष्य को चाहिए कि अपने स्वार्थ को संभालते हुए दूसरों का उपकार अवश्य करे । यही सारभूत मनुष्यता है ।।
आगे जाति, कुल आदि के अहंकार को निंद्य एवं वर्जनीय बतलाते हुए अनेक आख्यानकों का उल्लेख करके यह बतलाया गया है कि उच्च कुल में जन्म लेने वाले अनेक व्यक्ति नीच कार्य करते हुए देखे जाते हैं और अनेक पुरुष नीच कुल में उत्पन्न होकर के भी उच्च कार्य करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं । अतएव उच्च और नीच का व्यवहार जाति और कुलाश्रित न मानकर गुण और कर्माश्रित मानना चाहिए ।।
इस विषय में इतना विशेष ज्ञातव्य है कि कितने ही लोग जाति और कुल को अमिट और अटल सिद्ध करने के लिए अनेक प्रकार की कल्पनाएं करते हैं । कोई तो कहते हैं कि ये ब्राह्मणादि वर्ण ब्रह्मा के द्वारा सृष्टि के आदि में बनाये गये हैं और युगान्त तक रहेंगे । कितने ही लोग इनसे भी आगे बढ़कर कहते हैं कि सभी जातियां अनादि से हैं और अनन्त काल तक रहेंगी । कितने ही लोग जातियों को नाशवान् कहकर वर्णों को नित्य कहते हैं, तो कितने ही लोग वर्गों को अनित्य मानकर जातियों को नित्य कहते हैं । कुछ लोग जाति और वर्ण का भेद मनुष्यों में ही मानते हैं, तो कुछ लोग पशु, पक्षी और वृक्षादिक में भी उनका सद्भाव बतलाते हैं । परन्तु ये सब कोरी और निराधार कल्पनाएं ही हैं । कर्म-सिद्धांत के अनुसार गति की अपेक्षा जीवों के मनुष्य, देव, नारकी और तिर्यंच ये चार भेद हैं और जाति की अपेक्षा एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रियादि पांच भेद हैं । यद्यपि एकेन्द्रियादि की उत्तर जातियाँ अनेक हैं, तथापि उनमें उपर्युक्त प्रकार से जाति या वर्ण का भेद मानना न आगम-संगत है और न युक्ति-संगत ही। वस्तुत: वर्ण-व्यवस्था आजीविका की विभिन्नता पर की गई थी । वर्तमान में प्रचलित जाति-व्यवस्था तो देश-काल-जनित नाना प्रकार की परिस्थितियों का फल है। यही कारण है कि इन जातियों के विषय में थोड़ा-बहुत जो इतिहास उपलब्ध है, वह उन्हें बहुत आधुनिक सिद्ध करता है ।
जातिवाद को बहुत अधिक महत्त्व देने वाले हिन्दुओं के महान् ग्रन्थ महाभारत में लिखा हैकैवती-गर्भसम्भूतो व्यासो नाम महामुनिः । तपसा ब्राह्मणो जातस्तस्माज्जातिरकारणम् ॥१॥ उर्वशी-गर्भसम्भूतो वशिष्टः सुमहामुनिः । तपसा ब्राह्मणो जातस्तस्माज्जातिरकारणम् ॥२॥ श्वपाकि-गर्भसम्भूतः पाराशरमहामुनिः । तपसा ब्राह्मणो जातस्तस्माज्जातिरकारणम् ॥३॥ चाण्डाली-गर्भसम्भूतो विश्वामित्रो महामुनिः । तपसा ब्राह्मणो जातस्तस्माज्जातिरकारणम् ॥४॥
अर्थात् - धीवरी के गर्भ से उत्पन्न हुए व्यास महामुनि तप के प्रभाव से ब्राह्मण हो गये, उर्वशी के गर्भ से उत्पन्न हुए वशिष्ट महामुनि तप के प्रभाव से ब्राह्मण कहलाये, श्वपाकी (कुत्ते का मांस खाने वाली) के गर्भ से उत्पन्न हुए पाराशर महामुनि तप के प्रभाव से ब्राह्मण हो गये और चाण्डाली के गर्भ से उत्पन्न हुए विस्वामित्र महामुनि तप के प्रभाव से ब्राह्मण हो गये । इसलिए उच्च कहलाने के लिए जाति कोई कारण नहीं है, किन्तु आचरण ही प्रधान कारण है।
सारांश यह है कि वर्तमान में प्रचलित जाति और वर्णों को अनादि और अनन्त कालीन बतलाना सर्वथा असत्य है । हां, यह ठीक है कि साधारणतः उच्च और नीच कुल में जन्म लेने वाले जीवों पर उनके परम्परागत उच्च या नीच आचरण का प्रभाव अवश्य पड़ता है, पर अपवाद सर्वत्र दृष्टिगोचर होते हैं । कहीं उच्च कुलीन लोगों में भी हीनाचरण की प्रवृत्ति देखी जाती है । और कहीं नीच कुलीन लोगों में भी सदाचार की प्रवृत्ति पाई जाती है । इसलिए एकान्त
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