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________________ 5 सर्ग में इन ग्यारहों ही गणधरों के जन्मस्थान, माता-पिता और शिष्य परिवार का विस्तृत वर्णन किया गया है। प्रस्तावना में आगे और भी कई बातों के विवरण के साथ एक चित्र दिया गया है, जिससे कि गणधरों की आयु, दीक्षा-काल आदि अनेक महत्त्वपूर्ण बातें ज्ञात हो सकेंगी । पन्द्रहवें सर्ग में भ. महावीर के उपदेश की कुछ रूप-रेखा देकर बतलाया गया है कि गौतम गणधर ने किस प्रकार उनकी वाणी को द्वादशाङ्ग रूप में विभाजित किया और मागध जाति के देवों ने किस प्रकार उसे दूर-दूर तक फैलाया । इसी सर्ग में भगवान् के विहार करते हुए सर्वत्र धर्मोपदेश देने का भी वर्णन किया गया है और बतलाया गया है कि किस-किस देश के कौन-कौन से राज-परिवार भगवान् के दिव्य उपदेश से प्रभावित होकर उनके धर्म के अनुयायी बन गये थे । भ. महावीर ने जिन सर्वलोक-कल्याणकारी उपदेशों को दिया उनमें से साम्यवाद, अहिंसा, स्याद्वाद और सर्वज्ञता ये चार मुख्य मानकर चार सर्गों में ग्रन्थकार ने उनका बहुत ही सुन्दर एवं सरल ढंग से वर्णन किया है । साम्यवाद का वर्णन करते हुए कहा गया है- हे आत्मन्, यदि तुम यहां सुख से रहना चाहते हो, तो औरों को भी सुख से रहने दो। यदि तुम स्वयं दुखी नहीं होना चाहते, तो औरों को भी दुःख मत दो अन्य व्यक्ति को आपत्ति में पड़ा देखकर तुम चुप मत बैठे रहो, किन्तु उसके संकट को दूर करने का शक्ति भर प्रयत्न करो। दूसरों का जहां पसीना बह रहा हो, वहां पर तुम अपना खून बहाने के लिए तैयार रहो। दूसरों के लिए किया गया बुरा कार्य स्वयं अपने ही लिए बुरा फल देता है, इसलिए दूसरों के साथ भला ही व्यवहार करना चाहिए । अहिंसा का वर्णन करते हुए कहा गया है जो दूसरों को मारता है वह स्वयं दूसरों के द्वारा मारा जाता है और जो दूसरों की रक्षा करता है, वह दूसरों से रक्षित रहता हुआ जगत्-पूज्य बनता है। आश्चर्य है कि मनुष्य अपने स्वार्थ के वश में होकर दूसरों को मारने और कष्ट पहुँचाने के लिए तत्पर रहता है और नाना प्रकार के छलों का आश्रय लेकर दूसरों को धोखा देता है। पर वह यह नहीं सोचता कि दूसरों को धोखा देना वस्तुतः अपने आपको धोखा देना है। यज्ञों में की जाने वाली हिंसा को लक्ष्य करके कहा गया है "इसे स्वर्ग भेज रहे हैं" ऐसा कहकर जो लोग बकरे, भैंसें आदि के गले पर तलवार का वार करते हैं, वे अपने स्नेही जनों को उसी प्रकार स्वर्ग क्यों नहीं भेजते? इस प्रकार अनेक युक्तियों से अहिंसा का समर्थन करते हुए कवि ने कहा है कि भगवती अहिंसा ही सारे जगत् की माता है और हिंसा ही डाकिनी और पिशाचिनी है, इसलिए मनुष्य को हिंसा - डाकिनी से बचते हुए भगवती अहिंसा देवी की ही शरण लेना चाहिए । अहिंसा के सन्दर्भ में और भी अनेक प्रमाद-जनित कार्यों का उल्लेख कर उनके त्याग का विधान किया गया है और अन्त में बतलाया गया है कि अहिंसा भाव की रक्षा और वृद्धि के लिए मनुष्य को मांस खाने का सर्वथा त्याग करना चाहिए । जो लोग शाक-पत्र, फलादिक को भी एकेन्द्रिय जीव का अंग मान कर उसे भी मांस खाने जैसा बतलाते हैं, उन्हें अनेक युक्तियों से सिद्ध कर यह बतलाया गया है कि शाक-पत्र फलादिक में और मांस में आकाश पाताल जैसा अन्तर है । यद्यपि दोनों ही प्राणियों के अंग है, तथापि शाक- फलादिक भक्ष्य हैं और मांस अभक्ष्य है । जैसे कि दूध और गोबर एक ही गाय-भैंस के अंगज पदार्थ हैं, तो भी दूध ही भक्ष्य है, - गोबर नहीं । इस प्रकार इस सोलहवें सर्ग में साम्यवाद और अहिंसावाद का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया गया है। सत्तरहवें सर्ग में मनुष्यता या मानवता की व्याख्या करते हुए बतलाया गया है कि जो मनुष्य दूसरे का सन्मान करता है और उसकी छोटी सी भी बात को बड़ी समझता है, वास्तव में वही मनुष्यता को धारण करता है। किन्तु जो अहंकार यश औरों को तुच्छ समझता है और उनका अपमान करता है, यह मनुष्य की सबसे बड़ी नीचता है। आत्महित के अनुकूल आचरण का नाम मनुष्यता है, केवल अपने स्वार्थ साधन का नाम मनुष्यता नहीं है। अतः प्राणिमात्र के लिए हितकारक प्रवृत्ति करना चाहिए । आगे बताया गया है कि पापाचरण को छोड़ने पर ही मनुष्य उच्च कहला सकता है, केवल उच्च कुल में जन्म लेने से ही कोई उच्च नहीं कहा जा सकता। इसलिए पाप से घृणा करना चाहिए, किन्तु पापियों से नहीं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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