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________________ ग्यारहवें सर्ग में कवि ने एक अनुपम ढंग से भ. महावीर के पूर्व भवों का वर्णन किया है । भगवान् घ्यानावस्था में ही अवधिज्ञान से अपने पूर्व भवों को देखते हैं और विचार करते हैं कि हाय, हाय ? आज संसार में जो मिथ्या आचार देख रहा हूँ, उनका मैं ही तो कुबीजभूत हूँ, क्योंकि पूर्व भवों में मैंने ही मिथ्या मार्ग का प्रचार एवं प्रसार किया है । वे ही मत-मतान्तर आज नाना प्रकार के असदाचारों के रूप में वृक्ष बन कर फल-फूल रहे हैं । इसलिए जगत् की चिकित्सा करने के पहिले मुझे अपनी ही चिकित्सा करनी चाहिए । जब तक मैं स्वयं शुद्ध (नीरोग एवं नीराग) न हो जाऊं, तब तक दूसरों की चिकित्सा करना कैसे उचित मानी जा सकती है । इसलिए मुझे बाहिरी परिग्रहादि से और आन्तरिक मद-मत्सरादि दुर्भावों से असहयोग करना ही चाहिए । भगवान् विचारते हैं कि मुझे स्व-राज्य अर्थात् आत्मीय स्वरूप की प्राप्ति के लिए परजनों से असहयोग ही नहीं, बल्कि दुर्भावों का बहिष्कार भी करना चाहिए, तभी मेरा स्व-राज्य-प्राप्ति के लिए किया गया यह सत्याग्रह सफल होगा । यहां यह उल्लेखनीय है कि जब कवि अपने इस काव्य की रचना कर रहे थे, उस समय महात्मा गांधी ने स्वराज्य प्राप्ति के लिए सत्याग्रह संग्राम और असहयोग आन्दोलन छेड़ा हुआ था उससे प्रभावित होकर कवि ने उसका उपयोग अध्यात्म रूप स्वराज्य प्राप्ति के लिए किया है। भ. महावीर के पूर्व भवों की विस्तृत चर्चा इसी प्रस्तावना में आगे की गई है । बारहवें सर्ग में कवि ने ग्रीष्म ऋतु का विस्तार से वर्णन करते हुए बतलाया कि जब सारा संसार सूर्य की गर्मी से त्रस्त होकर शीतलता पाने के लिए प्रयत्नशील हो रहा था, तब भ. महावीर शरीर से ममता छोड़कर पर्वत के शिखरों पर महान् आतापन योग से अपने कर्मों की निर्जरा करने में संलग्न हो रहे थे । वर्षाकाल में वे वृक्षों के नीचे खड़े रह कर कर्म मल गलाते रहे और शीतकाल में चौराहों पर रात-रात भर खड़े रह कर ध्यान किया करते थे । इस प्रकार कभी एक मास के, कभी दो मास के, कभी चार मास के और कभी छह मास के लिए प्रतिमा योग धारण कर एक स्थान पर अवस्थित रह कर आत्म ध्यान में मग्न रहते थे। भ. महावीर के इस छद्यस्थ कालीन महान् तपश्चरण का विवरण आगे विगतवार दिया गया है, जिससे पाठक जान सकेंगे कि उन्होंने पूर्व भव-संचित कर्मों का विनाश कितनी उग्र तपस्या के द्वारा किया था । इस प्रकार की उग्र तपस्या करते हुए साढ़े बारह वर्ष व्यतीत होने पर भ. महावीर को वैशाख शुक्ला दशमी के दिन कैवल्य विभूति की प्राप्ति हुई । उसके पाते ही भगवान् के केवल-ज्ञान जनित दश अतिशय प्राप्त हुए । तभी इन्द्र ने अपने देव परिवार के साथ आकर उस सभा स्थल का निर्माण कराया, जो कि समवशरण के नाम से प्रख्यात है। तेरहवें सर्ग में उस समवशरण की रचना का विस्तार से वर्णन किया गया है । इस समवशरण के मध्य भाग में स्थित कमलासन पर भगवान् चार अंगुल अन्तरीक्ष विराजमान हुए, उनके समीप आठ प्रातिहार्य प्रकट हुए और देव कृत चौदह अतिशय भी प्रकट हुए । भ. महावीर के इस समवशरण में स्वर्ग से आते हुए देवों को तथा नगर निवासियों को जाते देख कर गौतम प्रथम तो आश्चर्य चकित होते हैं और विचारते हैं कि क्या मेरे से भी बड़ा कोई ज्ञानी हो सकता है। पश्चात् वे भ. महावीर के पास आते ही इतने अधिक प्रभावित हुए कि उन्होंने उनका शिष्यत्व ही स्वीकार कर लिया और तभी उनके निमित्त से भगवान की दिव्य देशना प्रकट हुई । इस सन्दर्भ में भ. महावीर ने इन्द्रभूति गौतम को लक्ष्य करके जो उपदेश दिया है, वह पठनीय ही नहीं, बल्कि मननीय भी है । इन्द्रभूति गौतम को भ. महावीर का शिष्य बना देखकर उनके भाई अग्निभूति और वायुभूति भी अपने-अपने शिष्य परिवार के साथ भगवान् के शिष्य बन गये और उनके देखा देखी अन्य आठ महा विद्वान् भी अपने शिष्य परिवार के साथ दीक्षित हो गये । यहां यह बात उल्लेखनीय है कि ये सभी ब्राह्मण विद्वान् एक महान् यज्ञ समारोह में एकत्रित हुए थे । उसी समय भ. महावीर को केवल ज्ञान हुआ था और ज्ञान कल्याणक मनाने के लिए देवगण आ रहे थे। इस सुयोग ने महा मिथ्यात्वी इन्द्रभूति आदि ब्राह्मण विद्वानों को क्षण भर में सम्यक्त्वी और संयमी बना दिया और वे सभी विद्वान् भगवान् के सूत्ररूप उपदेश के महान् व्याख्याता बनकर गणधर के रूप में प्रसिद्ध हुए और उसी भव से मुक्त भी हुए । चौदहवें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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