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________________ 8 कहा और प्रजा की सेवा सुश्रूषा करने वालों को शूद्र कहीं उन्हीं भ. ऋषभदेव ने पुरुषों की ७२ कलाओं और स्वियों की ६४ कलाओं को सिखाया। मिट्टी के बर्तन बनाना भी उन्होंने सिखाया । जिसके फलस्वरूप कुम्भार लोग आज भी 'परजापत' (प्रजापति) कहलाते हैं । आद्य स्तुतिकार स्वामी समस्तभद्र ने ऋषभदेव की स्तुति करते हुए उन्हें 'प्रजापति' के नाम से उल्लेख करके कहा कि उन्होंने ही जीने की इच्छुक प्रजा को कृषि, गोपालन आदि कार्यों की सर्व प्रथम शिक्षा दी । भ. ऋषभ देव के दीक्षित होने पर उनके साथ दीक्षित होने वाले लोग कुछ दिन तक तो भूख-प्यास को सहते रहे । अन्त में भ्रष्ट होकर यद्वा तद्वा आचरण करने लगे। भ. ऋषभ देव ने कैवल्य प्राति के बात उन्हें संबोधा । जिससे कितने ही लोगों ने तो वापिस सुमार्ग स्वीकार कर लिया। पर मरीचि और उसके अनुयायियों ने अपना वेष नहीं छोड़ा और कुमार्ग पर ही चलते रहे । इसका विस्तृत विवेचन आगे किया गया है । इस सन्दर्भ में कवि ने मुनिचर्या और गृहस्थ धर्म का जैसा सुन्दर वर्णन भ. ऋषभ देव के द्वारा कराया है, वह मननीय है । आगे कवि ने भरत चक्री द्वारा ब्राह्मणों की उत्पत्ति का वर्णन किया है और बतलाया है कि ये ब्राह्मण भ. शीतलनाथ के समय तक तो अपने धर्म पर स्थिर रहे। पीछे उससे परान्मुख होकर अपने को धर्म का अधिकारी बताकर मनमाने क्रियाकाण्ड का प्रचार करने लगे। धीरे-धीरे यहां तक नौबत आई कि 'अजैर्यष्टव्यं' इस वाक्य के अर्थ पर एक ही क्षीर-कदम्ब गुरु से पढे हुई पर्वत और नारद में उग्र विवाद खड़ा हो गया। जब ये दोनों विवाद करते हुए अपने सहाध्यायी वसुराजा के पास पहुँचे, तो गुराणी के अनुरोध-वश वसुराजा ने गुरु-पुत्र पर्वत का कथन सत्य कह कर यथार्थ सत्य की हत्या करदी और तभी से तीन वर्ष पुराने नवीन अंकुरोत्पादन के अयोग्य धान्य के स्थान पर बकरों का यज्ञ में हवन किया जाने लगा, जिसकी परम्परा भ. महावीर और महात्मा बुद्ध के समय तक उत्तरोत्तर बढ़ती गई । इस यज्ञबलि के विरोध में उक्त दोनों महान् आत्माओं ने जो प्रबल विरोध किया, उसके फलस्वरूप आज पशुयज्ञ दृष्टिगोचर नहीं हो रहे हैं। इतना ही नहीं, उनकी अहिंसामयी धर्म देशना का प्रभाव तात्कालिक वैदिक विद्वानों पर भी पड़ा और उन्होंने भी सिंहक यज्ञों एवं बाहिरी क्रिया-काण्डों के स्थान पर आत्म-यज्ञ और ज्ञानमय क्रियाकाण्ड का विधान अपने उपनिषदों और ब्राह्मण सूत्रों में किया तथा इसी शताब्दी के प्रारम्भ में उत्पन्न हुए प्रसिद्ध आर्य समाजी नेता स्वामी दयानन्द सरस्वती ने भी उन हिंसा परक वेद मंत्रों का अहिंसा परक अर्थ करके अहिंसा की ध्वजा को फहराया । कवि ने अवसर्पिणीकाल के चौथे भाग को द्वापर युग के नाम से उल्लिखित कर अपनी समन्वय दृष्टि प्रकट की है। तदनुसार आज का युग कलिकाल है, यह स्वतः सिद्ध हो जाता है। अनेक जैनाचार्यों ने 'काले कलौ चले बिते और 'काल कलिया कलुधशयो वा" इत्यादि वाक्यों से आज के युग को कलिकाल कहा ही है। - उन्नीसवें सगँ में कवि ने बहुत ही सरल ढंग से अनेकान्तवाद, स्याद्वाद और उसके सात भंगों का वर्णन किया है। दार्शनिक वर्णन साधारणत: कठिन होने से पाठकों को सहज ग्राह्य नहीं होता। पर यह ग्रन्थकार की महान् कुशलता और सुविज्ञता ही समझना चाहिए कि उनके इस प्रकरण को पढ़ने पर सर्व साधारण पाठक भी स्याद्वाद और अनेकान्तवाद के गूढ़ रहस्य से परिचित हो सकेंगे । - द्रव्य का लक्षण 'सत' (अस्तित्व) रूप माना गया है और 'सत्' को उत्पाद व्यय और ध्रौव्य रूप कहा गया है जिसका अभिप्राय यह है कि प्रत्येक वस्तु प्रति समय अपने पूर्व रूप को छोड़ती रहती है, नवीन रूप तो धारण करती है । फिर भी उसका मूल अस्तित्व बना रहता है। पूर्व रूप या आकार के परित्याग को व्यय, नवीन रूप के १. प्रजापतिर्यः प्रथमं जिजीविषुः शशास कृष्यादिषु कर्मसु प्रजाः । १. सोमदेवसूरिने यशस्तिलकर्मे । सद्-द्रव्यलक्षणम् । उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सत् । Jain Education International ( स्वम्भूस्तोत्र, श्लो. २) २. समन्तभद्राचार्य युक्तयनुशासनमें । For Private & Personal Use Only ( तत्वार्थसूत्र, अ. ५, सू. २९-३० ) www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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