________________
192
दीपेऽञ्जनं वार्दकुले तु शम्पां गत्वाऽम्बुधौ वाडवमप्यकम्पा । मेधा किलास्माकमियं विभाति जीयादनेकान्तपदस्य जातिः ॥२२॥ दीपक में अञ्जन, बादलों में बिजली और समुद्र में बड़वानल को देखकर हमारी बुद्धि निःशङ्क रूप से स्वीकार करती है कि भगवान् का अनेकान्तवाद सदा जयवन्त है ||२२||
भावार्थ दीपक भासुराकार है, तो भी उससे काला काजल उत्पन्न होता है । बादल जलमय होते हैं, फिर भी उनसे अग्निरूप बिजली पैदा होती है । इन परस्पर विरोधी तत्त्वों को देखने से यही मानना पड़ता है कि प्रत्येक पदार्थ में अनेक धर्म हैं । इसी अनेक धर्मात्मकता का दूसरा नाम अनेकान्त है । इसकी सदा सर्वत्र विजय होती है ।
सेना - वनादीन् गदतो निरापद् दारान् स्त्रियं किञ्च जलं किलापः । एकत्र चैकत्वमनेकताऽऽपि किमङ्ग भर्तुर्न धियाऽभ्यवापि ॥ २३ ॥ जिसे 'सेना' इस एक नाम से कहते हैं, उसमें अनेक हाथी, घोड़े और पयादे होते हैं । जिसे 'वन' इस एक नाम से कहते हैं, उनमें नाना जाति के वृक्ष पाये जाते हैं । एक स्त्री को 'दारा' इस बहुवचन से, तथा जल को 'आप' इस बहुवचन से कहते हैं । इस प्रकार एक ही वस्तु में एकत्व और अनेकत्व की प्रतीति होती है । फिर हे अङ्ग (वत्स), क्या तुम्हारी बुद्धि इस एकानेकात्मक रूप अनेकान्ततत्त्व को स्वीकार नहीं करेगी । अर्थात् तुम्हें उक्त व्यवहार को देखते हुए अनेकान्ततत्त्व को स्वीकार करना ही चाहिए ॥२३॥
द्रव्यं द्विधैतच्चिदचित्प्रभेदाच्चिदेष जीवः प्रभुरात्मवेदात् । प्रत्यङ्गमन्यः स्वकृतैकभोक्ता यथार्थतः स्वस्य स एव मोक्ता ॥२४॥ जो द्रव्य सत्सामान्य की अपेक्षा एक प्रकार का है, वही चेतन और अचेतन के भेद दो प्रकार का है । उनमें यह जीव चेतन द्रव्य है जो अपने आपका वेदन ( अनुभवन) करने में समर्थ है, प्रत्येक शरीर में भिन्न-भिन्न प्रतीत होता है, अपने किये हुए कर्मों का स्वयं ही भोक्ता है और यथार्थतः अपने आपका विमोक्ता भी यही है ||२४||
मद्याङ्ग वद्भूतसमागमेभ्यश्चिच्चेन्न भूयादसमोऽमुके भ्यः 1
कुतः स्मृतिर्वा जनुरन्तरस्यानवद्यरूपाद्य च भूरिशः स्यात् ॥२५॥
कुच लोग ऐसा कहते हैं कि मदिरा के अंग-भूत गुड़-पीठी आदि के संयोग से जैसे मदशक्ति उत्पन्न हो जाती है, उसी प्रकार पृथ्वी आदि चार भूत द्रव्यों के संयोग से एक चेतन शक्ति उत्पन्न हो जाती है, वस्तुतः चेतन जीव नाम का कोई पदार्थ नहीं है । किन्तु उनका यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि गुड़-पीठी आदि में तो कुछ न कुछ मद शक्ति रहती ही है, वही उनके संयोग होने पर अधिक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org