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विकसित हो जाती है । किन्तु पृथ्वी आदि भूत चतुष्टय में तो कोई चेतनाशक्ति पाई नहीं जाती । अतः उनसे वह विलक्षण चैतन्य कैसे उत्पन्न हो सकता है ? दूसरी बात यह है कि यदि जीव नाम का कोई चेतन पदार्थ हो ही नहीं, तो फिर लोगों को जो जन्मान्तर की स्मृति आज भी निर्दोष रूप से देखने में आती है, वह कैसे संभव हो । तथा भूत-प्रेतादि जो अपने पूर्व भवों को कहते हुए दृष्टिगोचर होते हैं, उनकी सत्यता कैसे बने । अतएव यही मानना चाहिए कि अचेतन पृथ्वी आदि से चेतन जीव एक स्वतन्त्र पदार्थ है ॥२५॥
निजेङ्गितात्ताङ्ग विशेषभावात्संसारिणोऽमी ह्यचराश्चरा वा । तेषां श्रमो नारक देवमर्त्यतिर्यक्तया तावदितः प्रवर्त्यः ॥ २६ ॥
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अपने शुभाशुभ भावों से उपार्जित कर्मों के द्वारा शरीर-विशेषों को धारण करते हुए ये जीव सदा संसार में परिभ्रमण करते हुए चले आ रहे हैं, अतः इन्हें संसारी कहते हैं । ये संसारी जीव दो प्रकार के हैं चर (स) और अचर (स्थावर ) । जिनके केवल एक शरीर रूप स्पर्शनेन्द्रिय होती है, उन्हें अचर या स्थावर जीव कहते हैं और जिनके स्पर्शनेन्द्रिय के साथ रसना आदि दो, तीन, चार या पांच इन्द्रियां होती हैं उन्हें चर या त्रस जीव कहते हैं । नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति के भेद से वे जीव चार प्रकार के होते हैं । नारक, देव और मनुष्य तो त्रस जीव हैं और तिर्यंच त्रस तथा स्थावर दोनों प्रकार के होते हैं । इस प्रकार से जीवों के और भी भेद-प्रभेद जानना चाहिए ||२६||
नरत्वमास्वा भुवि मोहमायां मुञ्चेदमुञ्चेच्छिवतामथायात् । नोचेत्पुनः प्रत्यववर्तमानः संसारमेवाञ्चति चिन्निधानः ॥२७॥
संसार में परिभ्रमण करते हुए जो जीव मनुष्य भव को पाकर मोह-माया को छोड़ देता है, वह शिवपने को प्राप्त हो जाता है अर्थात् कर्म-बन्धन से छूट जाता है । किन्तु जो संसार की मोह-माया को नहीं छोड़ता है, वह चैतन्य का निधान (भण्डार) होकर भी चतुर्गति में परिभ्रमण करता हुआ संसार में ही पड़ा रहता है ॥२७॥
धूलिः पृथिव्याः कणशः सचित्तास्तत्कायिकैरार्हतसूक्तवित्तात् । अचेतनं भस्म सुधादिकन्तु शौचार्थमेतन्मुनयः श्रयन्तु ॥ २८ ॥
( उपर्युक्त देव, नारकी और मनुष्यों के सिवाय जितने भी संसारी जीव हैं, वे सब तिर्यंच कहलाते हैं। वे भी पांच प्रकार के हैं- एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय । इनमें एकेन्द्रिय जीव भी पांच प्रकार के हैं- पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक ।) पृथ्वी ही जिनका शरीर है, ऐसे जीवों को पृथ्वीकायिक कहते हैं । पृथ्वी की धूलि, पत्थर के कण आदिक सचित्त हैं, क्योंकि उन्हें अर्हत्परमागम में पृथ्वीकायिक जीवों से युक्त कहा गया है । जली हुई पृथ्वी की भस्म, चूना की कली आदि पार्थिव वस्तुएं अचेतन हैं, शौच-शुद्दि के लिए मुनिजनों को इस भस्म आदि का ही उपयोग करना चाहिए ॥२८॥
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