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________________ 191 ज्ञानी जन वस्तु-गत ध्रुवांश को 'गुण' इस नाम से कहते हैं और अन्य दोनों धर्मों को अर्थात् उत्पाद और व्यय को 'पर्याय' इस नाम से कहते हैं । इस प्रकार गुण और पर्याय से संयुक्त तत्त्व को, अथवा सामान्य और विशेष धर्म से युक्त तत्त्व को 'द्रव्य' इस नाम से कहा जाता है ॥१८॥ सद्भिः परैरातुलितं स्वभावं स्वव्यापिनं नाम दधाति तावत् । सा मान्यमूर्ध्व च तिरश्च गत्वा यदस्ति सर्वं जिनपस्य तत्त्वात् ॥१९॥ जो कोई भी वस्तु है वह आगे पीछे होने वाली अपनी पर्यायों में अपने स्वभाव को व्याप्त करके रहती है, इसी को सन्त लोगों ने ऊर्ध्वता सामान्य कहा है । तथा एक पदार्थ दूसरे पदार्थ के साथ जो समानता रखता है, उसे तिर्यक् सामान्य कहते हैं । इस प्रकार जिनदेव का उपदेश है ||१९|| भावार्थ सामान्य दो प्रकार का है - तिर्यक् सामान्य और ऊर्ध्वता सामान्य । विभिन्न पुरुषों में जो पुरुषत्व - सामान्य रहता है, उसे तिर्यक् सामान्य कहते हैं । तथा एक ही पुरुष की वाल, युवा और वृद्ध अवस्था में जो अमुक व्यक्तित्व रहता है, उसे ऊर्ध्वता सामान्य कहते हैं । प्रत्येक वस्तु यह दोनों प्रकार का सामान्य धर्म पाया जाता है । अन्यैः समं सम्भवतोऽप्यमुष्य व्यक्तित्वमस्ति स्वयमेव पुष्यत् । यथोत्तरं नूतनतां दधान एवं पदार्थ : प्रतिभासमानः ॥२०॥ अन्य पदार्थों के साथ समानता रखते हुए भी प्रत्येक पदार्थ अपने व्यक्तित्व को स्वयं ही कायम रखता है, अर्थात् दूसरों से अपनी भिन्नता को प्रकट करता है । यह उसकी व्यतिरेक रूप विशेषता है। तथा वह पदार्थ प्रति समय नवीनता को धारण करता हुआ प्रतिभासमान होता है, यह उसकी पर्यायरूप विशेषता है ||२०|| भावार्थ- वस्तु में रहने वाला विशेष धर्म भी दो प्रकार का है - व्यतिरेक रूप और पर्याय रूप । एक पदार्थ में जो असमानता या विलक्षणता पाई जाती है, उसे व्यतिरेक कहते हैं और प्रत्येक द्रव्य प्रति समय जो नवीन रूप को धारण करता है, उसे पर्याय कहते हैं । यह दोनों प्रकार का विशेष धर्म भी प्रत्येक पदार्थ में पाया जाता है । समस्ति नित्यं पुनरप्यनित्यं यत्प्रत्यभिज्ञाख्यविदा समित्यम् । कुतोऽन्यथा स्याद् व्यवहारनाम सूक्तिं पवित्रामिति संश्रयामः ॥२१॥ द्रव्य की अपेक्षा वस्तु नित्य है और पर्याय की अपेक्षा वह अनित्य है । यदि वस्तु को सर्वथा नित्य कूटस्थ माना जाय, तो उसमें अर्थक्रिया नहीं बनती है । और यदि सर्वथा क्षणभंगुर माना जाय, तो उसमें 'यह वही है' इस प्रकार का प्रत्यभिज्ञान नहीं हो सकता । अतएव वस्तु को कथञ्चित् नित्य और कथञ्चित् अनित्य मानना पड़ता है । अन्यथा लोक व्यवहार कैसे संभव होगा । इसलिए लोकव्यवहार के संचालनार्थ हम भगवान् महावीर के पवित्र अनेकान्तवाद का ही आश्रय लेते हैं ॥२१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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