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________________ हरररररररररररररर[190रररररररररर पटं किमञ्चेद् घटमाप्तुमुक्तः नोचेत्प्रबन्धः इह प्रयुक्तः । घटस्य कार्य न पटः श्रियेति घटः स एवं न पटत्वमेति ॥१४॥ घड़े को लाने के लिए कहा गया पुरुष क्या कपड़ा लायगा ? नहीं, क्योंकि घड़े का काम कपड़े से नहीं निकल सकता । अर्थात् प्यासे पुरुष की प्यास को घड़ा ही दूर कर सकता है, कपड़ा नहीं । यदि ऐसा न माना जाय, तो फिर इस प्रकार के वाक्य-प्रयोग का क्या अर्थ रहेगा ? कहने का भाव यह है कि घड़े का कार्य कपड़ा नहीं कर सकता । और न घड़ा पट के कार्य कर सकता है । घड़े अपने जल-आहरण आदि कार्य को करेगा और कपड़ा अपने शीत-निवारण आदि कार्य को करेगा ॥१४॥ घटः पदार्थश्च पटः पदार्थः शैत्यान्वितस्यास्ति घटेन नार्थः । पिपासुरभ्येति यमात्मशक्त्या स्याद्वादमित्येतु जनोऽति भक्त्या ॥१५॥ घट भी पदार्थ है और पट भी पदार्थ है, किन्तु शीत से पीड़ित पुरुष को घट से कोई प्रयोजन नहीं । इसी प्रकार प्यास से पीड़ित पुरुष घट को चाहता है, पट को नहीं । इससे यह सिद्ध होता है कि पदार्थपना घट और पट में समान होते हुए भी प्रत्येक पुरुष अपने अभीष्ट को ही ग्रहण करताहै, अनभीप्सित पदार्थ को नहीं । इस प्रकार प्रत्येक मनुष्य को स्याद्वाद सिद्धान्त भक्ति से स्वीकार करना चाहिए ॥१५॥ स्यूतिः पराभूतिरिव घुवत्वं पर्यायतस्तस्य यदेकतत्त्वम् । नोत्पद्यते नश्यति नापि वस्तु सत्त्वं सदैतद्विदधत्समस्तु ॥१६॥ जैसे पर्याय की अपेक्षा वस्तु में स्यूति (उत्पत्ति) और पराभूति (विपत्ति या विनाश) पाया जाता है, उसी प्रकार द्रव्य की अपेक्षा ध्रुवपना भी उसका एक तत्त्व है, जो कि उत्पत्ति और विनाश में बराबर अनुस्यूत रहता है । उसकी अपेक्षा वस्तु न उत्पन्न होती है और न विनष्ट होती है । इस प्रकार उत्पाद, व्यय गैर ध्रुव इन तीनों रूपों को धारण करने वाली वस्तु को ही यथार्थ मानना चाहिए ॥१६॥ भाष्ये निजीये जिनवाक्यसारम्पतञ्जलिश्चैतदुरीचकार । तमांसमीमांसकनामकोऽपि स्ववार्त्तिके भट्ट कुमारिलोऽपि ॥१७॥ जिन भगवान् के स्याद्वाद रूप इस सार वाक्य को पतञ्जलि महर्षि ने भी अपने भाष्य में स्वीकार किया है, तथा मीमांसक मत के प्रधान व्याख्याता कुमारिल भट्ट ने भी अपने श्लोक-वार्त्तिक में इस स्याद्वाद सिद्धान्त को स्थान दिया है ॥१७॥ ध्रुवांशमाख्यान्ति गुणेति नाम्ना पर्येति योऽन्यद्वितयोक्तधामा । द्रव्यं तदेतद्गुणपर्ययाभ्यां यद्वाऽत्र सामान्यविशेषताऽऽभ्याम् ॥१८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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