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189 CCTTTTTTTTTTT कुरान और बाइबिल को नहीं । इस प्रकार 'स्याद्वाद' सिद्धान्त उक्त दृष्टान्त से बहुत अच्छी तरह दैदीप्यमान सिद्ध होता है ॥१०॥
भावार्थ - मुसलमान और ईसाई अपने-अपने धर्म ग्रन्थ को ही प्रमाण मानते हैं, इस अपेक्षा एक ग्रन्थ एक के लिए प्रमाण है, तो दूसरे के लिए अप्रमाण है । किन्तु ब्राह्मण दोनों को ही अप्रमाण मानते हैं और वेद को प्रमाण मानते हैं । इस दृष्टान्त में मुसलमान और ईसाई परस्पर विरोधी होते हुए भी वेद को प्रमाण नहीं मानने में दोनों अविरोधी है, अर्थात् एक हैं । इस प्रकार एक की अपेक्षा जो ग्रन्थ प्रमाण है, वही दूसरे की अपेक्षा अप्रमाण है और तीसरे की अपेक्षा दोनों ही अप्रमाण हैं । इस स्थिति को एक मात्र स्याद्वाद सिद्धान्त ही यथार्थतः कहने में समर्थ है, अन्य एकान्तवादी सिद्धान्त नहीं। इसी से स्याद्वाद की प्रामाणिकता सिद्ध होती है ।
गोऽजोष्ट्रका बेरदलं चरन्ति वाम्बूलमुष्ट्रश्छगलोऽप्यनन्तिन् ।
समत्ति मान्दारमजो हि किन्तु तान्येकभावेन जनाः श्रयन्तु ॥११॥ गाय, बकरी और ऊंट ये तीनों ही बेरी के पत्तों को खाते हैं, किन्तु बबूल के पत्तों को ऊंट और बकरी ही खाते हैं, गाय नहीं । मन्दार (आकड़ा) के पत्तों को बकरी ही खाती है, ऊंट और गाय नहीं । किन्तु मनुष्य बेरी, बबूल और आक इन तीनों के ही पत्तों को नहीं खाता है । इसलिए हे अनन्त धर्म के मानने वाले भव्य, जो वस्तु एक के लिए भक्ष्य या उपादेय है, वही दूसरे के लिए अभक्ष्य या हेय हो जाती है । इसे समझना ही स्याद्वाद है, सो सब लोगों को इसका ही एक भाव से आश्रय लेना चाहिए ॥११॥
हंसस्तु शुक्लोऽसृगमुष्य रक्तः पदोरिदानीमसको विरक्तः ।
किं रूपतामस्य वदेद्विवेकी भवेत्कथं निर्वचनान्वयेऽकी ॥१२॥
यद्यपि हंस बाहिर से शुल्क वर्ण है, किन्तु भीतर तो उसका रक्त लाल वर्ण का है, तथा उसके पैर श्वेत और लाल दोनों ही वर्गों के होते हैं । ऐसी स्थिति में विवेकी पुरुष उसको किस रूप वाला कहे ? अतएव कथञ्चिद्-वाद के स्वीकार करने पर ही उसके ठीक निर्दोष रूप का वर्णन किया जा सकता है ॥१२॥
घूकाय चान्ध्यं दददेव भास्वान् कोकाय शोकं वितरन् सुधावान् । भुवस्तले किन पुनर्धियापि अस्तित्वमेकत्र च नास्तितापि ॥१३॥
देखो-इस भूतल पर प्राणियों को प्रकाश देने वाला सूर्य उल्लू को अन्धपना देता है और सब को शान्ति देने वाला चन्द्रमा कोक पक्षी को प्रिया-वियोग का शोक प्रदान करता है ? फिर बुद्धिमान् लोग यह बात सत्य क्यों न माने कि एक ही वस्तु में किसी अपेक्षा अस्तित्व धर्म भी रहता है और किसी अपेक्षा नास्तित्व धर्म भी रहता है ॥१३॥
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