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अथैकोनविशः सर्गः:
श्रीवीरदेवेन तमामवादि सत्सम्मतोऽयं नियमोऽस्त्यनादिः । अर्थक्रियाकारितयाऽस्तु वस्तु नोचेत्युनः कस्य कुतः स्तवस्तु ॥१॥
श्री महावीर भगवान् ने बतलाया कि प्रत्येक पदार्थ सत्स्वरूप है । वस्तु-स्वभाव का यह नियम अनादि है और जो भी वस्तु है, वह अर्थक्रियाकारी है, अर्थात् कुछ न कुछ क्रियाविशेष को करती है । यदि अर्थक्रियाकारिता वस्तु का स्वरूप न माना जाय, तो कोई उसे मानेगा ही क्यों ? और क्यों किसी वस्तु की सत्ता को स्वीकार किया जायगा ॥१॥
प्राग-रूपमुज्झित्य समेत्यपूर्वमेकं हि वस्तूत विदो विदुर्वः । हे सज्जना स्तत्त्रयमेककालमतो विरूपं वदतीति बालः ॥२॥
प्रत्येक वस्तु प्रति समय अपने पूर्व रूप (अवस्था) को छोड़कर अपूर्व (नवीन) रूप को धारण करती है फिर भी वह अपने मूल स्वरूप को नहीं छोड़ती है, ऐसा ज्ञानी जनों ने कहा है, सो हे सज्जनो, आप लोग भी वस्तु की वह उत्पाद-व्यय-धौव्यात्मक त्रिरूपता एक एक काल में ही अनुभव कर रहे हैं । जो वस्तु-स्वरूप से अनभिज्ञ हैं, ऐसे बाल (मूर्ख) जन ही इससे विपरीत स्वरूप वाली वस्तु को कहते हैं ॥२॥
__ भावार्थ - जो केवल उत्पाद या व्यय या ध्रौव्यरूप ही वस्तु को मानते हैं, वे वस्तु के यथार्थ स्वरूप को न जानने के कारण अज्ञानी ही हैं।
प्रवर्धते चेत्पयसाऽऽमशक्तिस्तद्धायनये किन्तु दधिप्रयुक्तिः । . द्वये पुनर्गोरसता तु भाति त्रयात्मिकाऽतः खलु वस्तुजातिः ॥३॥
देखो-दूध के सेवन करने से आमशक्ति बढ़ती है और उसी दूध से बने दही का प्रयोग आम को नष्ट करता है । किन्तु उस दूध दही दोनों में ही गोरसपना पाया जाता है, अतः समस्त वस्तुजाति उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप त्रयात्मक है, यह बात सिद्ध होती है ॥३॥
नरस्य दृष्टौ विडभक्ष्यवस्तु किरेस्तदेतद्वरभक्ष्यमस्तु । एकत्र तस्मात्सदसत्प्रतिष्ठामङ्गीकरोत्येव जनस्य निष्ठा ॥४॥
मनुष्य की दृष्टि में विष्टा अभक्ष्य वस्तु है, किन्तु सूकर के तो वह परम भक्ष्य वस्तु है । इसलिए एक ही वस्तु में सत् और असत् की प्रतिष्ठा को ज्ञानी जन की श्रद्धा अङ्गीकार करती ही है ॥४॥
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