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________________ Q 187 रेखैकिका नैव लघुर्न गुर्वी लघ्व्याः परस्या भवति स्विदुर्वी । गुर्वी समीक्ष्याथ लघुस्तृतीयां वस्तुस्वभावः सुतरामितीयान् ॥५॥ कोई एक रेखा ( लकीर) न स्वयं छोटी है और न बड़ी है । यदि उसी के पास उससे छोटी रेखा खींच दी जाय, तो वह पहिली रेखा बड़ी कहलाने लगती है, और यदि उसी के दूसरी ओर बड़ी रेखा खींच दी जाय, तो वही छोटी कहलाने लगती है । इस प्रकार वह पहिली रेखा छोटी और बड़ी दोनों रूपों को, अपेक्षा - विशेष से धारण करती है । बस, वस्तु का स्वभाव भी ठीक इसी प्रकार का जानना चाहिए ॥५॥ भावार्थ इस प्रकार अपेक्षा - विशेष से वस्तु में अस्तित्व और नास्तित्व धर्म सिद्ध होते हैं । प्रत्येक वस्तु अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा अस्ति रूप है और पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा नास्ति रूप है । सन्ति स्वभावात्परतो न यावास्तस्मादवाग्गोचरकृत्प्रभावाः । सहे त्यतस्तत्त्रितयात्प्रयोगाः सप्तांत्र विन्दति कलावतो गाः ॥६॥ जैसे यव (जौ) अपने यवरूप स्वभाव से 'हैं', उस प्रकार गेहूँ आदि के स्वभाव से 'नहीं' हैं। इस प्रकार यव में अस्तित्व और नास्तित्व ये दो धर्म सिद्ध होते हैं । यदि इन दोनों ही धर्मो को एक साथ कहने की विवक्षा की जाय, तो उनका कहना संभव नहीं है, अतः उस यव में अवक्तव्य रूप तीसरा धर्म भी मानना पड़ता है । इस प्रकार वस्तु में अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य ये तीन धर्म सिद्ध होते हैं। इनके द्विसंयोगी तीन धर्म और त्रिसंयोगी एक धर्म इस प्रकार सब मिला कर सात धर्म सिद्ध हो जाते हैं । ज्ञानी जन इन्हें ही सप्त भंग नाम से कहते हैं ||६|| सप्तप्रकारत्वमुशन्ति भोक्तुः फलानि च त्रीण्यधुनोपयोक्तुम् । पृथक् कृतौ व्यस्त - समस्ततातः न्यूनाधिकत्वं न भवत्यथातः ॥७॥ जैसे हरड, बहेड़ा और आंवला, इन तीनों का अलग-अलग स्वाद है । द्विंसयोगी करने पर हरड और आवले का मिला हुआ एक स्वाद होगा, हरड और वहेड़े का मिला हुआ दूसरा स्वाद होगा और बड़े आंवले का मिला हुआ तीसरा स्वाद होगा । तीनों को एक साथ मिला कर खाने पर एक चौथी ही जाति का स्वाद होगा । इस प्रकार मूल रूप हरड, बहेड़ा और आंवला के एक संयोगी तीन भंग, द्विसंयोगी तीन भंग और त्रिसंयोगी एक भंग, ये सब मिल कर सात भंग जैसे हो जाते हैं, उसी प्रकार अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य के भी द्विसंयोगी तीन भंग और त्रिसंयोगी एक भंग, ये सब मिला कर सात भंग हो जाते हैं । ये भंग न इससे कम होते हैं और न अधिक होते हैं ॥७॥ भावार्थ अस्ति १, नास्ति २, अवक्तव्य ३, अस्ति नास्ति ४, ६, और अस्ति नास्ति - अवक्तव्य ७ ये सात भंग प्रत्येक वस्तु के - Jain Education International For Private & Personal Use Only अस्ति- अवक्तव्य ५, नास्ति - अवक्तव्य यथार्थ स्वरूप का निरुपण करते हैं, www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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