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rumorom 184 rumore निवार्यमाणा अपि गीतवन्तः सत्यान्वितैरागमिभिर्ह दन्तः । वाक्यावली?रगुणोदरीर्यास्ते ये पुनः पर्वतपक्षकीयाः ॥५३॥
जो लोग आगम के जानकार और सत्य पक्ष से युक्त थे, जिनके हृदय में सत्य मार्ग से प्रेम था, उनके द्वारा पर्वत के पक्ष का निवारण किये जाने पर भी पर्वत के पक्ष वाले लोगों ने हिंसा के समर्थक गीतों की रचना करके उन्हें गाना प्रारम्भ कर दिया और तभी से यज्ञों में हिंसा करने और पशु होमने की प्रथा का प्रचलन प्रारम्भ हो गया ॥५३॥
व्यासर्षिणाथो भविता पुनस्ताः प्रयत्नतः सङ्कलिताः समस्ताः । यथोचितं पल्लविताश्च तेन सङ्कल्पने बुद्धिविशारदेन ॥५४॥ इसके पश्चात् पांडवों के दादा व्यास ऋषि ने, जो कि नवीन कल्पना की रचना में बुद्धि-विशारद थे,-अति चतुर थे-परम्परागत उन सब गीतों का बड़े प्रयत्न से संकलन किया, उन्हें यथोचित पल्लवित किया और उनको एक नया ही रूप दे दिया ॥५४॥
तत्सम्प्रदायश्रयिणो नरा ये जाताः स्विदद्यावधि सम्पराये । सर्वेऽपि हिंसापरमर्थमापुर्यतोऽभितस्त्रस्तिमिताऽखिला पूः ॥५५॥
उस सम्प्रदाय का आश्रय करने वाले आज तक जितने भी विद्वान् हुए हैं, वे सभी उन मन्त्रों का हिंसा-परक अर्थ करते हुए चले आये, जिससे कि सकल प्रजा अत्यन्त त्रास को प्राप्त हुई ॥५५॥
वाढ़ क्षणे चोपनिषत्समर्थे ऽभूत्तर्क णा यद्यपि तावदर्थे ।
तथाप्यहिंसामयवाचनाया नासीत्प्रसिद्धिः स्फुटरूपकायाः ॥५६॥ यद्यपि उपनिषत्काल में उनके रचयिता आचार्यों के द्वारा हिंसापरक मंत्रों के अर्थ के विषय में तर्क-वितर्क हुआ और उन्होंने उन मन्त्रों का अहिंसा-परक अर्थ किया । तथापि उस अहिंसामयी स्पष्ट अर्थ करने वाली वाचना की जैसी चाहिए-प्रसिद्धि नहीं हो सकी और लोग हिंसा-परक अर्थ भी करते रहे ॥५६॥
स्वामी दयानन्दरवस्तदीयमर्थं त्वहिंसापर कं श्रमी यः । कृत्वाद्य शस्तं प्रचकार कार्यं हिंसामुपेक्ष्यैव चरेत्किलार्यः ॥५७॥ हां, अभी जो स्वामी दयानन्द सरस्वती हुए, जो कि अध्ययनशील परिश्रमी सज्जन थे, उन्होंने उन्ही मन्त्रों का अहिंसा-परक अर्थ करके बतला दिया कि हिंसा करना अप्रशस्त कार्य है । अतः आर्यजन हिंसा की उपेक्षा करके अहिंसक धर्माचरण करें। उन्होंने यह बहुत प्रशस्त कार्य किया, जो कि धर्मात्माजनों के द्वारा सदा प्रशंसनीय रहेगा ५७।।
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