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भारत चक्रवर्ती ने जिन ब्राह्मणों का एक धार्मिक वर्ग प्रस्थापित किया था, वह दशवें तीर्थङ्कर शीतलनाथ के समय तक तो अपने धार्मिक कर्त्तव्य का यथोचित रीति से पालन करता रहा । पुनः इसके पश्चात धर्म - विमुख होकर जातीयता को प्राप्त होते हुए उन्होंने इस भारतवर्ष अप्रशस्त प्रथाओं को स्वीकार किया और मन-माने क्रियाकाण्ड का प्रचार करना प्रारम्भ कर दिया ॥४८॥
धर्माधिकर्तृत्वममी दधाना बाह्यं क्रियाकाण्डुमिताः स्वमानात् । गुरोरमीष्वेकतरादधीत-विदोर्विवादः
समभूद्धवीतः ॥४९॥
धीरे-धीरे जातीयता के अभिमान से इन ब्राह्मणों ने अपने आपको धर्म का अधिकारी घोषित कर दिया और बाहिरी क्रिया काण्ड को ही धर्म बता कर उसके करने-कराने में ही लग गये । बीसवें तीर्थङ्कर मुनि सुव्रतनाथ के समय में जाकर उनमें एक ही गुरु से पढ़े हुए दो ब्राह्मण विद्वानों में एक वाक्य के अर्थ पर विवाद खड़ा हो गया ॥ ४९ ॥
समस्ति यष्टव्यमजैरमुष्य छागैरियत्पर्वत आह दूष्यम् । तयोरभूत्सङ्ग र साध्यवस्तु
पुराणधान्यैरिति नारदस्तु
।।५० ।। दोनों विद्वानों में से एक का नाम था पर्वत और दूसरे का नाम था नारद । विवाद का विषय था 'अजैर्यष्टव्यम्' (अजों से यज्ञ करना चाहिए ) । पर्वत 'अज' पद का अर्थ छाग ( बकरा ) करता था और नारद कहता था कि उस पद का अर्थ उगने या उत्पन्न होने के अयोग्य पुराना धान्य है । जब आपस में विवाद न सुलझा, तब उसे सुलझाने के लिए उन्होंने आपस में प्रतिज्ञा-बद्ध होकर अपने सहाध्यायी तीसरे गुरु भाई वसु राजा को निर्णायक न्यायाधीश नियुक्त किया ॥५०॥
न्यायाधिपः प्राह च पार्वतीयं वचो वसुर्वाग्विवशो महीयम् ।
भिन्नाऽगिरत्सम्भवती तमाराद् यतोऽधुनाऽभूज्जनता द्विधारा ॥ ५१ ॥
(पर्वत की मां ने पहिले ही जाकर वसु राजा को अपने पुत्र के पक्ष में मत देने के लिए वचन - बद्ध कर लिया, अतः मतदान के समय) वचन बद्ध होने से विवश न्यायधीश वसु राजा ने कहा कि पर्वत का वचन सत्य है । उसके ऐसा कहते ही अर्थात् असत्य पक्ष का समर्थन करने पर तुरन्त पृथ्वी फटी और वह राज्य - सिंहासन के साथ ही उसमें धस गया । उसी समय उपस्थित जनता दो धाराओं में विभक्त हो गई । जो तत्त्व के रहस्य को नहीं जानते थे, वे पर्वत के पक्ष में हो गये और जो I तत्त्वज्ञ थे, वे नारद के पक्ष में हो गये ॥ ५१ ॥
यथा दुरन्तोच्चयमभ्युपेता जलस्त्रु तिर्नूनमशक्तरेताः ।
इत्यत्र सम्पादितसम्पदा वाऽनुमातुमर्हन्ति महानुभावाः ॥५२॥ जैसे बीच में किसी बड़े पर्वत के आ जाने पर जल का प्रवाह उसे न हटा सकने के कारण दो भागों में विभक्त होकर बहने लगता है, उसी प्रकार उस वसु राजा के असत्य पक्ष का समर्थन करने से धार्मिक जनता के भी दो भाग हो गये । ऐसा महापुरुष कहते हैं ॥५२॥
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