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r e [18Terrrrrrrrrrrrrr एवं पुरुर्मानवधर्ममाह यत्रापि तैः संकलितोऽवगाहः । त्रेतेतिरूपेण विनिर्जगाम कालः पुनर्वापर आजगाम ॥४३॥
इस प्रकार भगवान् ऋषभ ने तात्कालिक लोगों को मानव-धर्म का उपदेश दिया, जिसे कि यहां पर संक्षेप से संकलित किया गया है । भगवान् के उपदेश को उस समय के लोगों ने बड़े आदर के साथ अपनाया । इस प्रकार त्रेता युग अर्थात् तीसरा काल समाप्त हुआ और द्वापर नाम का चौथा काल आ गया ।।४३॥
त्रेता बभूव द्विगुणोऽप्ययन्तु कालो मनागूनगुणैकतन्तुः । यस्मिन् शलाकाः पुरुषाः प्रभूया बभुश्च दुर्गिकृताभ्यसूयाः ॥४४॥
त्रेता युग दो कोड़ा-कोड़ी सागरोपम काल प्रमाण वाला था । यह द्वापर युग कुछ कम अर्थात् चौरासी हजार वर्ष कम एक कोड़ा-कोड़ी सागरोपम काल का था । इस द्वापर युग में तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि शलाका नाम से प्रसिद्ध महापुरुष हुए, जो कि संसार में फैलने वाले दुर्मार्ग के विनाशक एवं सन्मार्ग के प्रचारक थे ॥४४॥
पुरूदितं नाम पुनः प्रसाद्यामुष्मिंस्तु धर्माधिभुवोऽजिताद्याः । प्रजादुरीहाधिकृतान्यभावं निवारयन्तः प्रबभुर्यथावत् ॥४५॥
इस द्वापर युग में अजितनाथ आदिक तेईस तीर्थङ्कर और भी हुए, जिन्होंने गुरुदेव भगवान् ऋषभ के द्वारा प्रतिपादित धर्म का ही पुनः प्रचार और प्रसार करके प्रजा की दुर्वृत्तियों को दूर करते हुए सन्मार्ग का संरक्षण किया है ॥४५॥
तत्रादिमश्चक्रिषु पौरवस्तुक् शताग्रगण्यो भरतः समस्तु । दाढर्येन धर्मामृतमाबुभुत्सूनाहूय तांस्तत्र परं युयुत्सुः ॥४६॥ सम्मानयामास स यज्ञसूत्र-चिह्नेन भद्रं बजताममुत्र । कर्मे दमासीन्न पुरोरबाह्यः प्रमादतश्चक्र भृताऽवगाह्यं ॥४७॥
उन शलाका पुरुषों में के चक्रवर्तियों में प्रथम चक्रवर्ती भरत हुए, जो कि ऋषभदेव के सौ पुत्रों में सब से बड़े थे । उन्होंने अपनी प्रजा में से धर्मामृत पान करने के इच्छुक एवं परलोक सुधारने की चिन्ता रखने वाले लोगों को बुला कर यज्ञोपवीत रूप सूत्र-चिह्न देकर उनका सम्मान किया और उन्हें 'ब्राह्मण' नाम से प्रसिद्ध किया । यद्यपि यह कार्य भगवान् ऋषभदेव की दृष्टि से बाह्य था, अर्थात् ठीक न था । किन्तु भरत चक्री ने प्रमाद से यह कार्य कर लिया ॥४६-४७॥
यतस्त आशीतलतीर्थमापुरौचित्यमस्मात् पुनरुन्मनस्ताम् । आसाद्य जातीयकतां वजन्तः प्रथामुरीचकु रिहाप्यशस्ताम् ॥४८॥
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