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________________ 181 सांसारिक बाह्य वस्तुओं पर अधिकार पाने के लिए मन को अपने अधिकार में रखो । ( भाग्योदय से सहज में जो कुछ प्राप्त हो जाय, उसमें सन्तोष धारण करो ।) दूसरे के दोषों को मत कहो, यदि कहने का अवसर भी आवे, तो भी मौन धारण करो । अहम्भाव को छोड़ो। इस छल छिद्रों और प्रवंचनाओं से भरे महा प्रपंचमय संसार में कृतज्ञता प्रकट करो, कृतघ्नी मत बनो ॥३८॥ श्रुतं विगाल्याम्बु इवाधिकुर्यादेताद्दशी गेहभृतोऽस्तु चर्या । तदा पुनः स्वर्गल एव गेहः क्रमोऽपि भूयादिति नान्यथेह ॥३९॥ सुनी हुई बात को जल के समान छान कर स्वीकार करे, सहसा किसी सुनी बात का भरोसा न करे, किन्तु खूब छान बीनकर उचित-अनुचित का निर्णय करे । इस उपर्युक्त प्रकार की चर्या गृहस्थ की होनी चाहिए । यदि वह ऊपर बतलाई गई विधि के अनुसार आचरण करता है, तो वह यहां पर भी स्वर्गीय जीवन बिताता है और अगले जन्म में तो अवश्य ही स्वर्ग का भागी होगा अन्यथा इससे विपरीत आचरण करने वाला गृहस्थ यहां भी नारकीय या पशु-तुल्य जीवन बिताता है और अगले जन्म में भी वह नरक या पशु गति का भागी होगा ||३९|| एवं समुल्लासितलोक यात्रः संन्यस्ततामन्त इयादथात्र 1 समुज्झिताशेषपरिच्छदोऽपि अमुत्र सिद्धचै दुरितैकलोपी ॥ ४० ॥ इस प्रकार भली भांति इस लोक यात्रा का निर्वाह कर, अन्त समय में परलोक की सिद्धि के लिए सर्व परिजन और परिग्रहादि को छोड़कर, तथा पांचों पापों का सर्वथा त्याग कर सन्यास दशा को स्वीकार करे अर्थात् साधु बनकर समाधि पूर्वक अपने प्राणों का विसर्जन करे ॥४०॥ निगोपयेन्मानसमात्मनीनं श्रीध्यानवप्रे सुतरामदीनम् । इत्येष भूयादमरो विपश्चिन्न स्यात्पुनर्मारयिताऽस्य कश्चित् ॥४१॥ संन्यास दशा में साधक का कर्त्तव्य है कि वह अपने मन को दृढ़ता-पूर्वक श्री वीतराग प्रभु के ध्यान रूप कोट में सुरक्षित रखे और सर्व संकल्प-विकल्पों का त्याग करे। ऐसा करने वाला साधक विद्वान् नियम से अजर-अमर बन जायगा, फिर इसे संसार में मारने वाला कोई भी नहीं रहेगा ||४१ ॥ सम्बोधयामास स चेति शिष्यान् सन्मार्गगामीति नरो यदि स्यात् । प्रगच्छे दुन्मार्गगामी निपतेदनच्छे तदोन्नतेरुच्चपदं ॥४२॥ इस प्रकार श्री ऋषभदेव ने अपने शिष्यों को समझाया और कहा कि जो मनुष्य सन्मार्गगामी बनेगा, वह उन्नति के उच्च पद को अवश्य प्राप्त होगा । किन्तु जो इसके विपरीत आचरण कर उन्मार्ग गामी बनेगा, वह संसार के दुरन्त गर्त में गिरेगा और दुःख भोगेगा ॥ ४२ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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