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सम्बुद्धिमन्बेति पराङ्गनासु स्वर्णे तथान्यस्य तृणत्वमाशु । धृत्वाऽखिलेभ्यो मृदुवाक् समस्तु सूक्तामृतेनानुगतात्मवस्तु ॥३५॥ पर स्त्रियों में माता की सबुद्धि रखे अर्थात् उनमें यथा योग्य माता, बहिन और पुत्री जैसा भाव रखकर अपने हृदय को शुद्ध बनावे, पराये सुवर्ण में धनादिक में तृण जैसी बुद्धि रखे, वृद्ध जनों के आदेश और उपदेश को आदर से स्वीकार करे, सबके साथ मृदु वाणी बोलकर वचनामृत से सब को तृप्त करे, उन्हें अपने अनुकूल बनावे और उनके अनुकूल आचरण कर अपने व्यवहार को उत्तम रखे ॥३५॥
कुर्यान्मनो यन्महनीयमञ्चे नमद्यशः संस्तवनं समञ्चेत् ।
दृष्ट्वा पलाशस्य किलाफलत्वं को नाम वाञ्छेच्च निशाचरत्वम् ॥३६॥ हे भव्यों, यदि तुम संसार में पूजनीय बनना चाहते हो, तो मन को सदा कोमल रखो, सब के साथ भद्रता और नम्रता का व्यवहार करो, मद्य आदिक मादक वस्तुओं का सेवन कभी भी न करो। पलाश (ढाक वृक्ष) की अफलता को देखकर पल अर्थात् मांस का अशन (भक्षण) कभी मत करो और रात्रि में भोजन करके कौन भला आदमी निशाचर बनना चाहेगा ? अर्थात् कोई भी नहीं ॥३६॥ ।
भावार्थ - पलाश अर्थात् टेसू या ढाक के फूल लाल रंग के बहुत सुन्दर होते हैं, पर न तो उनमें सुगन्ध होती है और न उस वृक्ष में फल ही लगते हैं उस वृक्ष का होना निष्फल ही है । इसी प्रकार जो पल (मांस) का भक्षण करते हैं, उनका वर्तमान जीवन तो निष्फल है ही प्रत्युत भविष्य जीवन दुष्फलों को देने वाला हो जाता है, अतएवं मांस-भक्षण का विचार भी स्वप्न में नहीं करना चाहिए। रात्रि में खाने बालों को निशाचर कहते हैं और 'निशाचर' यह नाम राक्षसों तथा उल्लू आदि रात्रि-संचारी पक्षियों का है । उन्हें लक्ष्य में रखकर कहा गया है कि कौन आत्म-हितैषी मनुष्य रात्रि में खाकर निशाचर बनना चाहेगा, या निशाचर कहलाना पसन्द करेगा? अतएव रात्रि में कभी भी खानपान नहीं करना चाहिए।
वहावशिष्टं समयं न कार्यं मनुष्यतामञ्च कुलन्तु नार्य ! नार्थस्य दासो यशसश्च भूयाद् धृत्वा त्वधे नान्यजनेऽभ्यसूयाम् ॥३७॥
हे आर्य, सदा सांसारिक कार्यों के करने में ही मत लगे रहो, कुछ समय को भी बचाओ और उस समय धर्म-कार्य करो । मनुष्यता को प्राप्त करो, उसकी कीमत करो, जाति और कुल का मद मत करो । सदा अर्थ (धन या स्वार्थ) के दास मत बने रहो, किन्तु लोकोपकारी यश के भी कुछ काम करो । अन्य मनुष्यों पर ईर्ष्या, द्वेष आदि धारण कर पाप से अपने आपको लिप्त मत करो । ।३७॥
मनोऽधिकुर्यान्न तु बाह्यवर्गमन्यस्य दोषे स्विदवाग्विसर्गः । मुञ्चेदहन्तां परतां समञ्चेत्कृतज्ञतायां-महती-प्रपञ्चे ॥३८॥
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