SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 272
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ C 1 79ररररररररररररररररर एकं विहायोद्वहतोऽन्यदङ्गं गतस्य जीवस्य जड प्रसङ्गम् । भवाम्बुधेरुत्तरणाय नौका तनुर्नरोक्तै व समस्ति मौका ॥३०॥ यह प्राणी जड़ कर्मों के प्रसंग को पाकर चिरकाल से एक शरीर को छोड़कर अन्य शरीर को धारण करता हुआ चला आ रहा है । इसके लिए इस मानव-देह का पाना एक बढ़िया मौका है अर्थात् अपूर्व अवसर है और यह मनुष्य भव संसार-समुद्र से पार होने के लिए नौका के समान है ॥३०॥ ततो नृजन्मन्युचितं समस्ति यत्प्राणिमात्राय यशःप्रशस्ति । श्रव्यं पुनर्निर्वहणीयमेतद्वदामि युक्तावगमश्रियेऽतः ॥३१॥ इसलिए इस नर-भव में प्राणिमात्र के लिए जो उचित और यशस्कर प्रशस्त कर्तव्य है, उसे मैं उपयुक्त और हितकर शब्दों से वर्णन करता हूँ, उसे सुनना चाहिये, सुनकर धारण करना चाहिए और धारण कर भली भांति निभाना चाहिए ॥३१।।। कौमारमत्राधिगमय्य कालं विद्यानुयोगेन गुरोरथालम् । मिथोऽनुभावात्सहयोगिनीया गृहस्थता स्यादुपयोगिनी या ॥३२॥ कुमार-काल में गुरु के समीप रहकर विद्या के उपार्जन में काल व्यतीत करे । विद्याभ्यास करके पुनः युवावस्था में योग्य सहयोगिनी के साथ विवाह करके परस्पर प्रेम-पूर्वक रहते हुए (तथा न्याय पूर्वक आजीविकोपार्जन करते हुए) उपयोगिनी गृहस्थ-अवस्था को बितावे ॥३२॥ सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं क्लिष्टेषु जीवेषु तदर्तितोदम् । साम्यं विरोधिष्वधिगम्य जीयात् प्रसादयन् बुद्धिमहोनिजीयाम् ॥३३॥ गृहस्थ अवस्था में रहते हुए प्राणिमात्र पर मैत्री भाव रखे, गुणी जनों पर प्रमोद भाव और दुखी जीवों पर उनके दुःख दूर करने का करुणाभाव रखे । विरोधी जनों पर समता भाव को प्राप्त होकर और अपनी बुद्धि को सदा प्रसन्न (निर्मल) रखकर जीवन-यापन करे ॥३३॥ समीक्ष्य नानाप्रकृतीन्मनुष्यान् कदर्थिभावः कमथाप्यनुस्यात् । सम्भावयन्नित्यनुकूलचेता नटायतामङ्गिषु यः प्रचेताः ॥३४॥ संसार में नाना प्रकृति वाले मनुष्यों को देखकर अपने हृदय में खोटा भाव कभी न आने देवे, किन्तु उनके अनुकूल चित्त होकर उनका समादर करते हुए सावधानी के साथ बुद्धिमान् मनुष्य को सब प्राणियों पर यथा योग्य स्नेह मय व्यवहार करना चाहिए, रूखा या आदर-रहित व्यवहार तो किसी भी मनुष्य के साथ न करे ॥३४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy