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ररररररररररररररररर17रररररररररररररररररर ही हित मित प्रिय वचन बोलना चाहिए, बिना पूछे और अनावश्यक या अनवसर तो बोलना ही नहीं चाहिए । इस श्लोक के पूर्वार्ध द्वारा ईर्यासमिति और उत्तरार्ध के द्वारा भाषासमिति का प्रतिपादन किया गया है ।
मनोवचःकायविनिग्रहो हि स्यात्सर्वतोऽमुष्य यतोऽस्त्यमोही । तेषां प्रयोगस्तु परोपकारे स चापवादो मदमत्सरारेः ॥२७॥
यतः साधु मोह-रहित होता है और अपने मद-मत्सर आदि भावों पर विजय पाना चाहता है, अत: उसे अपने मन, वचन और काय की संकल्प-विकल्प एवं संभाषण और गमनादि रूप सभी प्रकार की क्रियाओं का विनिग्रह करना चाहिए । यही साधु का प्रधान कर्त्तव्य है । यदि कदाचित् संभाषण या गमनादि करना पड़े, तो उनका उपयोग परोपकार में ही होना चाहिए । किन्तु यह उसका अपवाद मार्ग है । उत्सर्ग मार्ग तो साधु का यही है कि वह मौन-पूर्वक आत्म-साधना करे और अपने अन्तरंग में अवस्थित मद, मत्सर, राग, द्वेषादि विकारों को निकालने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहे ॥२७॥ ____ भावार्थ - इस श्लोक द्वारा साधु को मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति रखने का विधान किया गया है । यही उसका प्रधान कार्य है। किन्तु निरन्तर मन-वचन-काय को गप्त रखना संभव नहीं है. अतः प्रयोजनवश मन, वचन, काय की क्रिया कर सकता है, किन्तु वह भी अत्यन्त सावधानी-पूर्वक। इसी सावधान प्रवृत्ति का नाम ही समिति है ।
कस्यापि नापत्तिकरं यथा स्यात्तथा मलोत्सर्गकरो महात्मा । संशोध्य तिष्ठेद्ध वमात्मनीनं देहं च सम्पिच्छिकया यतात्मा ॥२८॥
साधु महात्मा को चाहिए कि वह ऐसे निर्जन्तु और एकान्त स्थान पर मल-मूत्रादि का उत्सर्ग करे, जहां पर कि किसी भी जीव को किसी भी प्रकार की आपत्ति न हो । वह संयतात्मा साधु भूमि पर या जहां कहीं भी बैठे, उस स्थान को और अपने देह को पिच्छिका से भली भांति संशोधन और परिमार्जन करके ही बैठे और सावधानी-पूर्वक ही किसी वस्तु को उठावे या रखे ॥२८॥
भावार्थ - इस श्लोक के पूर्वार्ध-द्वारा व्युत्सर्ग समिति का और उत्तरार्ध-द्वारा आदान-निक्षेपण समिति का निरूपण किया गया है ।
निःसङ्गतां वात इवाभ्युपेयात् स्त्रियास्तु वार्तापि सदैव हेया । शरीरमात्मीयमवैति भारमन्यत्कि मङ्गी कुरुतादुदारः ॥२९॥
साधु को चाहिए कि वह नि:सगता (अपिरग्रहता) को वायु के समान स्वीकार करे अर्थात् वायु के समान सदा निःसंग होकर विचरे । स्त्रियों की तो बात भी सदा त्याज्य है, स्वप्न में भी उनकी याद न करे । जो उदार साधु अपने शरीर को भी भार-भूत मानता है, वह दूसरी वस्तु को क्यों अंगीकार करेगा ॥२९॥
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