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आत्म-साधना करते हुए यदि शरीर की हानि होती है, तो भले ही हो जाय, किन्तु साधु के शरीरहानि होते हुए भी द्वेष, खेद या असूया भाव नहीं प्रकट होना चाहिए। साधु का तो आत्म-साधना करतेहुए यही भाव रहना चाहिए कि इस जड़ शरीर का मेरे पुनः संयोग न होवे । यही अमृतोक्ति (अमर बनाने वाले वचन) साधु को निरन्तर पान करते रहना चाहिए ॥२४॥
लुप्तं समन्वेषयितुं प्रदावदस्मै मुनेीतिरधीतिनावः ।
जग्धिर्निजोद्देशसमर्थनायाऽनुद्दिष्टरूपेण समर्पिता या ॥२५॥
चिर काल से विलुप्त या मुषित आत्म-धन का अन्वेषण करने के लिए साधु अपने शरीर को भोजन देता है । भोजन-प्रप्ति के लिए वह अपने उद्देश्य का समर्थन करने वाली अनुदृिष्ट एवं भक्तिपूर्वक दाता के द्वारा समर्पित भिक्षा को अंगीकार करता है ॥२५।।
भावार्थ - जैसे कोई धनी पुरुष अपनी खोई हुई वस्तु को ढूंढने के लिए रखे हुए नौकर को वेतन या मजदूर को मजदूरी देता है, इसी प्रकार साधु भी अपने अनादिकाल से विस्मृत या कर्म रूप चोरों से अपहृत आत्म-धन को ढूंढ़ने या प्राप्त करने के लिये शरीर रूप नौकर को भिक्षा रूपी वेतन देकर सदा उसके द्वारा अपने अभीष्ट साधन में लगा रहता है । साधु शरीर की स्थिति के लिए जो भिक्षा लेते हैं वह उनके निमित्त न बनाई गई हो, निर्दोष हो, निर्विकार और सात्त्विक हो, उसे ही अल्प मात्रा में गृहस्थ के द्वारा भक्ति-पूर्वक एक बार दिये जाने पर दिन में एक बार ही ग्रहण करते हैं । यदि भोजन करते हुए किसी प्रकार का दोष उसमें दिखे, या अन्तराय आ जावे, तो वे उसका भी त्याग कर उस दिन फिर दुबारा आहार नहीं लेते हैं । पानी भी वे भोजन के समय ही पीते हैं, उसके पश्चात नहीं अर्थात् भोजन व जल-पान एक बार एक साथ ही लेते हैं । रात्रि में तो वे गमन, संभाषण तक के त्यागी होते हैं, तो आहार की तो कथा ही दूर है । इस श्लोक के द्वारा एषणा समिति का प्रतिपादन किया गया है. जिसका कि पालन साध का परम कर्तव्य है ।
सूर्योदये सम्विचरेत्. पुरोद्दक् शकुन्तवन्नैकतलोपभोक्ता । हितं यथा स्यादितरस्य जन्तोस्तथा सदुक्तेः प्रभवन् प्रयोक्ता ॥२६॥
साधु को सूर्य के उदय हो जाने और प्रकाश के भली-भांति फैल जाने पर ही सामने भूमि को देखते हुए विचरना चाहिए । पक्षी के समान साधु भी सदा विचरता ही रहे, किसी एक स्थान का उपभोक्ता न बने । और दूसरे जीव का हित जैसे संभव हो, वैसी सक्ति वाली हित मित भाषा का प्रयोग करे ॥२६॥
भावार्थ - साधु को आगम की आज्ञा के अनुसार वर्षा ऋतु के सिवाय ग्राम में एक दिन और नगर में तीन या पांच दिन से अधिक नहीं ठहरना चाहिए । वर्षा ऋतु में चार मास किसी एक ऐसे स्थान पर रहना चाहिए, जो कि कीचड़-कांदे से रहित हो, जहां बरसाती जीवों की उत्पत्ति कम हो और नीहार आदि के लिए हरियाली से रहित बंजर भूमि सुलभ हो । साधु को किसी के पूछने पर
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