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हे साधवस्तावदबाधवस्तु-सिद्धयै प्रयत्नो भवतां समस्तु ।
द्वैध्यं पुनर्वस्तुनि सत्तया तु जाडचं विदाढयत्वमपि प्रभातु ॥२०॥ ऋषभदेव ने उनसे कहा-हे साधुओ, आप लोग पहले निर्दोष वस्तु-स्वरूप समझने के लिए प्रयत्न करें । सत्ता रूप से जो एक तत्त्व है वह जड़ और चेतन के भेद से दो वस्तु रूप है, इस बात को आप लोग हृदयंगम करें ॥२०॥
तयोस्तु सम्मिश्रणमस्ति यत्र कलङ्क हे मोच्चययोर्विचित्रम् । हे माश्मनीवेदमनादिसिद्धं संसारमाख्याति धिया समिद्धः ॥२१॥ जिस प्रकार सुवर्ण-पाषाण में सुवर्ण और कीट-कालिमादि सम्मिश्रण अनादि-सिद्ध है, कभी किसी ने उन दोनों को मिलाया नहीं है, किन्तु अनादि से दोनों स्वयं ही मिले हुए चले आ रहे हैं । इसी प्रकार जड़ पुद्गल और चेतन जीव का विचित्र सम्बन्ध भी अनादि काल से चला आ रहा है और इसे ही बुद्धि से सम्पन्न लोग संसार कहते हैं ॥२१॥
भावार्थ - जीव और पुद्गल के सम्बन्ध से ही संसार की यह विचित्रता और विविधता दृष्टिगोचर हो रही है इसे समझने का प्रत्येक बुद्धिमान् को प्रयत्न करना चाहिए । ..
सिद्धिस्तु विश्लेषणमेतयोः स्यात् सा साम्प्रतं ध्यातिपदैकपोष्या । स्वाध्यायमेतस्य भवेदथाधो यज्जीवनं नाम समस्ति साधोः ॥२२॥ इन परस्पर मिले हुए जीव और पुद्गल के विश्लेषण का-भिन्न-भिन्न कर लेने का नाम ही सिद्धि या मुक्ति है । यह सिद्धि एक मात्र ध्यान (आत्म-स्वरूप चिन्तन) के द्वारा ही सिद्ध की जा सकती है । (अतएव साधु को सदा आत्म-ध्यान करना चाहिए।) जब ध्यान में चित्त न लगे, तब स्वाध्याय करना चाहिए। यही साधु का सत् जीवन है । (इस स्वाध्याय और ध्यान के अतिरिक्त सर्व कार्य हेय हैं, संसार-वृद्धि के कारण हैं) ॥२२॥
सिद्धिः प्रिया यस्य गुणप्रमातुरुपक्रि या केवलमाविभातु । निरीहचित्त्वाक्षजयोऽथवा तु प्राणस्य चायाम उदकं पातुः ॥२३॥
जिस गुणी पुरुष को सिद्धि प्राप्त करना अभीष्ट हो, उसे चाहिए कि वह सांसारिक वस्तुओं की चाह छोड़ कर अपने चित्त को निरीह (निस्पृह) बनावे, अपनी इन्द्रियों को जीते और प्राणायाम करे, तभी उसका भविष्य सुन्दर बन सकता है । ये ही कार्य सिद्धि प्राप्त करने के लिए एक मात्र उपकारी हैं ॥२३॥
शरीरहानिर्भवतीति भूयात्साधोर्न चैतद्विषयास्त्यसूया । पुनर्न संयोगमतोऽप्युपेयादेषामृतोक्तिः स्फुटमस्य पेया ॥२४॥
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