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________________ 175 CC लोकोपकारीणि बहूनि कृत्वा शास्त्राणि कष्टं जगतोऽथहृत्वा । योगस्य च क्षेमविधेः प्रमाता विचारमात्रात्समभूद्विधाता ॥१५॥ उन ऋषभदेव ने समय के विचार से लोकोपकारी अनेक शास्त्रों की रचना करके जगत् के कष्टों को दूर किया, उन्हें योग ( आवश्यक वस्तुओं को जुटाना) और क्षेम ( प्राप्त वस्तुओं का संरक्षण करना) सिखाया । इस प्रकार प्रजा की सर्व प्रकार जीविका और सुरक्षा विधि के विधान करने से वे ऋषभदेव जगत् के विधाता, सृष्टा या ब्रह्मा कहलाये ॥१५॥ यथा सुखं स्यादिह लोकयात्रा प्रादेशि सर्वं विधिना विधात्रा | प्रयत्नवानुत्तरलोक हे तु - प्रव्यक्तये सत्त्वहितैक सेतुः ॥१६॥ पुनः प्रवव्राज स लोकधाता शान्तेरबाह्ये विषयेऽनुमाता । गतानुगत्या कतिचित्प्रयाताः परेऽपि ये वस्तुतयाऽनुदात्ताः ॥ १७॥ इस लोक की जीवन-यात्रा सब लोगों की सुखपूर्वक हो, इसके लिए प्राणि मात्र के हितैषी उन आदि विधाता ऋषभदेव ने सभी योग्य उपायों का विधिपूर्वक उपदेश दिया । पुनः लोगों को परलोक के उत्तम बनाने के साधनों को प्रकट करने के लिए प्रयत्नशील एवं आन्तरिक शान्ति के अनुसन्धान करने वाले उस लोक-विधाता श्री ऋषभदेव ने प्रवृज्या को अंगीकार किया, अर्थात् सर्व राज्यपाट आदि छोड़कर साधु बन गये । कितने ही अन्य लोग भी उनकी देखा-देखी उनके गतानुगतिक बनकर चले, अर्थात् साधु बन गये, किन्तु वे लोग साधु बनने के वास्तविक रहस्य से अपरिचित थे ॥१६-१७॥ समस्तविक विभूतिपाताप्यतीन्द्रियज्ञानगुणैकधाता 1 अलौकिक वृत्तिमुपाश्रितोऽपि न सम्भवंल्लोक हितैकलोपी ॥ १८ ॥ सर्व विद्याओं के एक मात्र विभूति के धारक, अतीन्द्रिय ज्ञान गुण के अद्वितीय स्वामी और अलौकिक वृत्ति के आचरण करने वाले उन ऋषभदेव ने सर्व लोक के उपकारक अनेक महान् कार्य किये । ऐसा एक भी कार्य नहीं किया, जो कि लोक-हित का लेप करने वाला हो ॥१८॥ क्षुधादिकानां सहनेष्वशक्तान् कर्त्तव्यमूढानमुकस्य भक्तान् । त्यक्त्वाऽयनं स्वैरतया प्रयातान् सम्बोधयामास पुनर्विधाता ॥ १९ ॥ भगवान् ऋषभदेव के साथ जो लोग प्रवृजित हुए थे, वे लोग भूख-प्यास आदि के सहन करने में असमर्थ होकर कर्त्तव्यविमूढ़ हो गये, साधु-मार्ग को छोड़ कर स्वच्छन्द प्रवृत्ति करने लगे और जिस किसी के भक्त हो गये, अथवा भक्ष्याभक्ष्य का विचार न करके जिस किसी भी वस्तु को खाने लगे। उन लोगों की ऐसी विपरीत दशा को देखकर धर्म के विधाता भगवान् ऋषभदेव ने पुनः सम्बोधित किया और उन्हें धर्म के मार्ग पर लगाया ॥१९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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