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________________ TTTTTTTTTT 174CTTTTTTTTTTTTTTTT त्रेता पुनः काल उपाजगाम यस्मिन् मनः संकुचितं वदामः ।। निवासिनामाप शनैस्ततस्तु सङ्कोचमुर्वीतनयाख्यवस्तु ॥१०॥ पुनः त्रेतायुग नाम का काल आया, अर्थात् तीसरा काल प्रारम्भ हुआ, जिसमें यहां के रहने वाले लोगों का मन धीरे-धीरे संकुचित होने लगा । इसके फलस्वरूप पृथ्वी के पुत्र कल्पवृक्षों ने भी फल देने में संकोच करना प्रारम्भ कर दिया ॥१०॥ ईयामदस्वार्थपदस्य लेशमगादिदानी जनसन्निवेशः । नियन्त्रितुं तान् मनवो बभुस्ते धरातलेऽस्मिन् समवाप्त दुस्थे ॥११॥ जब कल्पवृक्षों से फलादिक की प्राप्ति कम होने लगी, तब यहां के निवासी जनों में भी ईर्ष्या, मद, स्वार्थपरायणता आदि दोष जागृत होने लगे, तब उनका नियन्त्रण करने के लिए दुरवस्था को प्राप्त इस धरातल पर क्रम से चौदह मनु उत्पन्न हुए, जिन्हें कि कुलकर भी कहा जाता है ॥११॥ तेष्वन्तिमो नाभिरमुष्य देवी प्रासूत पुत्रं जनतैक सेवी । बभूव यस्तेन तदस्य नाम न्यगादि वृद्धैर्ऋषभोऽभिरामः ॥१२॥ उन मनुओं में अन्तिम मनु नाभिराज हुए । इनकी स्त्री मरुदेवी ने एक महान् पुत्र को जन्म दिया, जो कि जनता की अद्वितीय सेवा करने वाला हुआ और जिसे पुराण-पुरुषों ने 'ऋषभ' इस सुन्दर नाम से पुकारा ॥१२॥ वीक्ष्येद्दशीमङ्गभृतामवस्थां तेषां महात्माकृतवान् व्यवस्थाम् । विभज्य तान् क्षत्रिय-वैश्य-शद्र-भेदेन मेधा-सरितां समुद्रः ॥१३॥ उस समय के लोगों की ऐसी पारस्परिक कलह-पूर्ण दुखित दीन-दशा को देखकर बुद्धिरूपी सरिताओं के समुद्र उस महात्मा ऋषभ ने उन्हें क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्गों में विभक्त कर उनके जीवननिर्वाह की समुचित व्यवस्था की ॥१३॥ यस्यानुकम्पा हृदि तूदियाय स शिल्पकल्पं वृषलोत्सवाय । निगद्य विडम्यः कृषिकर्म चायमिहार्थशास्त्र नृपसंस्तवाय ॥१४॥ लोगों के दुःख देखकर उन ऋषभदेव के हृदय में अनुकम्पा प्रकट हुई जिससे द्रवित होकर उन्होंने सेवा-परायण शूद्र लोगों को नाना प्रकार की शिल्प कलाएं सिखाई, वैश्यों को पशु पालना, खेती करना सिखाया तथा अर्थशास्त्र की शिक्षा देकर प्रजा के भरण-पोषण का कार्य सौंपा । और क्षत्रियों को नीति शास्त्र की शिक्षा देकर उन्हें प्रजा के संरक्षण का भार सौंपा ॥१४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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