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ररररररररररररररर171|रररररररररररररर के लिए होगा और उसके प्राणों का भी विनाश करेगा, ऐसा सभी सन्त जन कहते हैं । और आज लोक में भी हम यही देख रहे हैं । अतएव धन का मद करना भी व्यर्थ है ॥४४॥
इत्येवं प्रतिपद्य यः स्वहृदयादीामदादीन् हरन् । हर्षामर्षनिमित्तयोः सममतिर्निर्द्वन्द्वभावं चरन् । स्वात्मानं जयतीत्यहो जिन इयन्नाम्ना समाख्यायते तत्कर्त्तव्यविधिर्हि जैन इत वाक् धर्मः प्रसारे क्षितेः ॥४५॥ इस प्रकार जाति, कुल और धनादिक को निःसार समझ कर जो मनुष्य अपने हृदय से ईर्ष्या, अहंकार आदि को दूर कर और हर्ष या क्रोध के निमित्तों में समान बुद्धि रहकर निर्द्वन्द्व भाव से विचरता हुआ अपनी आत्मा को जीतता है, वह संसार में 'जिन' इस नाम से कहा जाता है । उस जिनके द्वारा प्रतिपादित कर्त्तव्य-विधान को ही 'जैनधर्म' इस नाम से कहते हैं ॥४५॥
पिता पुत्रश्चायं भवति गृहिणः किन्तु न यते स्तथैवायं विप्रो वणिगिति च बुद्धिं स लभते । य आसीन्नीतिज्ञोऽभ्युचितपरिवाराय मतिमान् । प्रभो रीतिज्ञः स्यात्तु विकलविकल्पप्रगतिमान् ॥४६॥
यह पिता है और यह पुत्र है, इस प्रकार का व्यवहार गृहस्थ का है, साधु का नहीं । इसी प्रकार यह ब्राह्मण है और यह वैश्य है, इस प्रकार की भेद-बुद्धि को भी स्वीकृत परिवार के व्यवहार के लिए वही नीतिज्ञ बुद्दिमान् गृहस्थ करता है । किन्तु जो घर-बार छोड़कर त्याग मार्ग को अंगीकार कर रहा है, ऐसा जिन प्रभु की रीति का जानने वाला साधु इन सब विकल्प-जालों से दूर रहता हुआ समभाव को धारण करता है ॥४६॥
श्रीमान् श्रेण्ठि चतुर्भुजः स सुषुवे भूरामलेत्याह्वयं वाणीभूषणवर्णिनं घृतवरी देवी च यं धीयतम् । तेनास्मिन् रचिते सतीन्दुसमिते सर्गे समावर्णितं सर्वज्ञेन दयावता भगवता यत्साम्यमादेशितम् ॥४७॥ इस प्रकार श्रीमान् सेठ चतुर्भुज और घृतवरी देवी से उत्पन्न हुए, वाणीभूषण बाल-ब्रह्मचारी पं. भूराभल वर्तमान मुनि ज्ञानसागर द्वारा विरचित इस वीरोदय काव्य में सर्वज्ञ भगवान् के द्वारा उपदिष्ट साम्यभाव का प्रतिपादन करने वाला यह सत्तरहवां सर्ग समाप्त हुआ ॥१७॥
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