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________________ नियतमधिकारः 1 धर्मेऽथात्मविकासे योऽनुष्ठातुं यतते सम्भाल्यतमस्तु स उदार: 118011 सर्व कथन का सार यह है कि धर्म धारण करने में, या आत्म-विकास करने में किसी एक व्यक्ति या जाति का अधिकार नहीं है । जो कोई धर्म के अनुष्ठान के लिए यत्न करता है, वह उदार मनुष्य संसार में सबका आदरणीय बन जाता है ॥४०॥ 1 तुल्यावस्था न सर्वेषां किन्तु सर्वेऽपि भागिनः सन्ति तस्या अवस्थायाः सेवामो यां वयं भुवि ॥४१॥ 170 नैकस्यैवास्ति यद्यपि वर्तमान में सर्व जीवों की अवस्था एक सी समान नहीं है हमारी अवस्था कुछ और है, दूसरे की कुछ और। किन्तु आज हम संसार में जिस अवस्था को धारण कर रहे हैं, उस अवस्था को भविष्य में दूसरे लोग भी धारण कर सकते हैं और जिस अवस्था को आज दूसरे लोग प्राप्त हैं, उसे कल हम भी प्राप्त कर सकते हैं, क्योंकि कर्म के उदय से जीव की दशा कभी एक सी नहीं रह पाती, हमेशा परिवर्तन होता रहता है, इसलिए मनुष्य को अपनी वर्तमान उच्च जाति या कुलादि का कभी गर्व नहीं करना चाहिए ॥ ४१ ॥ अहो जरासन्धकरोत्तरैः शरैर्मुरारिरासीत्स्वयमक्षतो वरैः । जरत्कुमारस्य च कीलकेन वा मृतः किमित्यत्र बलस्य संस्तवाः ॥ ४२ ॥ जिस प्रकार जाति का अभिमान करना व्यर्थ है, उसी प्रकार बल का गर्व करना भी व्यर्थ है। देखो - जरासन्ध के हाथों से चलाये गये उन महाबाणों से श्रीकृष्ण स्वयं अक्षत शरीर रहे, उनके शरीर का बाल भी बांका नहीं हो सका । वे ही श्रीकृष्ण जरत्कुमार के एक साधारण से भी बाण से मरण को प्राप्त हो गये । अतएव बल का गर्व करना क्या महत्त्व रखता है ||४२॥ अर्ह त्वाय न 1 दोर्बलिः किन्नु वाच्यमतः परम् ॥४३॥ चक्रिणा क्षण एवाऽऽप्तं बाहुबली दीर्घकाल तक तपश्चरण करते हुए जिस अर्हन्त पद को पाने में शीघ्र समर्थ नहीं हो सके, उसी अर्हन्त पद को भरत चक्री ने क्षण भर में ही प्राप्त कर लिया । इससे अधिक और क्या कहा जाय ? तपस्या का मद करना भी व्यर्थ है ||४३ ॥ नो 1 गुप्तमेव तु सद्धिर्निवेद्यते च ॥४४॥ पूर्व पुण्योदय से प्राप्त धन यदि परोपकार में नहीं लगाया गया और उसे भूमि में गाड़कर अत्यन्त गुप्त भी रखा गया, तो एक दिन वह धन तो नष्ट होगा ही, साथ में अपने स्वामी को भी आपत्ति धनं शक्तोऽभूत्तपस्यन्नपि Jain Education International चेत्परोपकाराय निधनं समुप्तं भूत्वाऽऽपदे For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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