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________________ हरररररररररररररररररररररररररररररर अथ अष्टादशः सर्गः हे नाथ के नाथकृतार्थिनस्तु जना इति प्रार्थित आह वस्तु । सन्दू यते स्वस्य गुणक्रमेण कालस्य च प्रोल्लिखितश्रमेण ॥१॥ हे नाथ, संक्लेश से भरे हुए ये संसारी प्राणी किस उपाय से कृतार्थ हो सकते हैं अर्थात् संक्लेश से छूटकर सुखी कैसे बन सकते हैं ? गौतम स्वामी के ऐसा पूछने पर वीर भगवान् ने कहा-प्रत्येक वस्तु अपने अपने गुण और पर्यायों के द्वारा सहज ही स्वयं परिणमनशील है और बाह्य कारण काल की सहायता से यह परिवर्तन होता रहता है ॥१॥ न कोऽपि लोके बलवान् विभाति समस्ति चैका समयस्य जातिः । यतः सहायाद्भवतादभूतः परो न कश्चिद्भुवि कार्यदूतः ॥२॥ यथार्थ में इस संसार का कोई कर्ता या नियन्ता ईश्वर नहीं है । एक मात्र समय (काल) की ही ऐसी जाति है, कि जिसकी सहायता से प्रत्येक वस्तु में प्रतिक्षण नवीन नवीन पर्याय उत्पन्न होती रहती है और पूर्व पर्याय विनष्ट होती रहती है इसके सिवाय संसार में और कोई कार्यदूत अर्थात् कार्य कराने वाला नहीं है ॥२॥ रथाङ्गिनं बाहुबलिः स एकः जिगाय पश्चात्तपसां श्रिये कः । तस्यैव साहाय्यमगात्स किन्तु क्षणेन लेभे महतां महीन्तु ॥३॥ अकेले बाहुबली ने भरत चक्रवर्ती को जीत लिया । पश्चात् वह तपस्वी बन गये । घोर तपस्या करने पर भी जब केवल ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ तब वही भरत चक्रवर्ती बाहुबली की सहायता को प्राप्त हुए । किन्तु उन्होंने स्वयं क्षण मात्र में महापुरुषों की भूमि आर्हन्त्य पदवी को प्राप्त कर लिया । यह सब समय का ही प्रभाव है ॥३॥ मृत्युं गतो हन्त जरत्कुमारैकबाणतो यो हि पुरा प्रहारैः ।। ना? जरासन्धमहीश्वरस्य किन्नाम मूल्यं बलविक मस्य ॥४॥ जो श्रीकृष्ण जरासन्ध त्रिखण्डेश्वर के महान् प्रहारों से भी परास्त नहीं हुए, वे जरत्कुमार के एक बाण से ही मृत्यु को प्राप्त हो गये । यहां पर बल-विक्रम का क्या मूल्य रहा ? कुछ भी नहीं यह सब समय की ही बलिहारी है ॥४॥ www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only Jain Education International
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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