SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 259
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 166 पराधिकारे त्वयनं यथाऽऽपन्निजाधिकाराच्यवनं च पापम् । अमानवं कर्म दुरन्तकुन्तिन् संक्षेपतः शास्त्रविदो वदन्ति ॥ २४ ॥ पाप - विनाश के लिए भाले के समान हे भव्य, शास्त्रकारों ने पाप को संक्षेप से तीन प्रकार का कहा है- पहिला पराये अधिकार में जाना, अर्थात् अनधिकार चेष्टा करना, दूसरा अपने अधिकार से च्युत होना और तीसरा विश्वासघात आदि अमानवीय कार्य करना ||२४|| वंश्योऽहमित्याद्यभिमानभावात्तिरस्क रोत्यन्यमनेकधा वा । धर्मों वदेत् केवलिनं हि सर्वं न धर्मवित्सोऽस्ति यतोह्यखर्वः ॥ २५ ॥ मैं उच्च वंश में उत्पन्न हुआ हूँ, इस प्रकार के अभिमान से जो दूसरे का नाना प्रकार से तिरस्कार करता है, वह धर्म का स्वरूप नहीं जानता है, क्योंकि जैनधर्म तो सभी प्राणियों को केवलज्ञान की शक्ति से सम्पन्न कहता है । इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह गर्व से रहित बने और अभिमान से कभी किसी का तिरस्कार न करे ॥२५॥ वंशश्च जातिर्जनकस्य मातुः प्रसङ्गतः केवलमाविभा । तयोः क्रिया किं पुनरेकरूपा विचार्यतामत्र विवेक भूपाः ॥ २६ ॥ पिता के पक्ष को वंश (कुल) कहते हैं और माता के पक्ष को जाति कहते हैं, इस विषय में सब एक मत हैं । यदि माता और पिता के प्रसंग से ही केवल जाति और कुल की व्यवस्था मानी जाय, तो हे विवेकवान् पुरुषो, इस विषय में विचार करो कि माता-पिता इन दोनों की क्रिया सर्वथा एक रूप रहती है ? ॥२६॥ वदन्नहो क्षत्रियताद्यमेषु I चतुष्पदेषूत खगेष्वगेषु विकल्पनामेव दधत्तदादिमसौ निराधार वचोऽभिवादी ॥२७॥ आश्चर्य है कि कितने ही लोग मनुष्यों के समान गाय, भैंस आदि चौपायों में, पक्षियों में और वृक्षों में भी क्षत्रिय आदि वर्णों की कल्पना करते हैं, किन्तु वे निराधार वचन बोलने वाले हैं, क्योंकि 'क्षत्रियाः क्षततस्राणात्' अर्थात् जो दूसरे को आपत्ति से बचावे, वह क्षत्रिय है, इत्यादि आर्ष वाक्यों का अर्थ उनमें घटित नहीं होता है ॥२७॥ विप्रत्वमियात् फिरङ्गी । रङ्गप्रतिष्ठा यदि वर्णभङ्गी शौक्ल्येन शूद्रत्वतो नातिचरेच्च विष्णुर्नैकं गृहं चैकरुचेः सहिष्णुः ॥ २८ ॥ कुछ लोगों का कहना है कि वर्ण-व्यवस्था वर्ण अर्थात् रूप रंग के आश्रित है, शुक्ल वर्ण वाले ब्राह्मण, रक्तवर्ण वाले क्षत्रिय, पीतवर्ण वाले वैश्य और कृष्णवर्ण वाले शूद्र हैं । ग्रन्थकार उन लोगों को लक्ष्य करके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy