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________________ सररररररररर16हारररररररररररर वेश्यासुता भ्रातृविवाहितापि भद्राधुना यत्र तयाऽऽर्यताऽऽपि । संसार एषोऽस्ति विगर्हणीयः भूयाद्भवान्नाम स बर्हणीयः ॥१९॥ वेश्या की लड़की अपने सगे भाई के द्वारा विवाही गई और अन्त में वह आर्यिका बनी । यह संसार ऐसा ही निन्दनीय है, जहां पर कि लोगों के परस्पर में बड़े विचित्र सम्बन्ध होते रहते हैं । इसलिये संसार से विरक्ति ही सारभूत है ॥१९॥ भावार्थ - कवि ने इस श्लोक-द्वारा अठारह नाते की कथा की ओर संकेत करके संसार के सम्बन्धों पर अपनी ग्लानि प्रकट की है । आराधनायां यदि कार्तिकेयः पित्रा सुतातोऽजनि भूतले यः । स चेदिहाचार्यपदप्रतिष्ठः कोऽथो न हि स्याज्जगदेकनिष्ठः ॥२०॥ आराधना कथाकोश में वर्णित कथा के अनुसार कार्तिकेय स्वामी इसी भूतल पर पिता के द्वारा पत्री से उत्पन्न हए और उन्होंने ही यहां पर आचार्य पद की प्रतिष्ठा प्राप्त की । यह घटना देखकर जगत् एकनिष्ठ क्यों नहीं होगा ? ॥२०॥ आलोचनीयः शिवनाम भर्ता व्यासोऽपि वेदस्य समष्टिकर्ता । किमत्र दिक् तेन तनूभृतेति यः कोऽपि जातेरभिमानमेति ॥२१॥ शिव नाम से प्रसिद्ध रुद्र की और वेद के संग्रहकर्ता पाण्डवों के दादा व्यास ऋषि की उत्पत्ति भी विचारणीय है । ऐसी दशा में जो कोई पुरुष जाति के अभिमान को प्राप्त होता है, उस मनुष्य के साथ बात करने में क्या तथ्य है ? ॥२१॥ सर्वोऽपि चेद् ज्ञानगुणप्रशस्ति. को वस्तुतोऽनादरभाक समस्ति । यतोऽतिगः कोऽपि जनोऽनणीयान् पापप्रवृत्तिः खलु गर्हणीया ॥२२॥ यदि सभी प्राणी ज्ञान गुण से संयुक्त हैं, तब वस्तुतः अनादर के योग्य कौन रहता है? अर्थात् कोई भी नहीं । हां, पापों में प्रवृत्ति करना अवश्य निन्दनीय है, जो कोई मनुष्य उससे दूर रहता है, वही महान् कहा जाता है ॥२२॥ सत्यानुकूलं मतमात्मनीनं कृत्वा समन्ताद् विचरन्नदीनः । पापदपेतं विदधीत चित्तं समस्ति शौचाय तदेक वित्तम् ॥२३॥ इसलिए मनुष्य को चाहिए कि अपने मत (विश्वास) को सर्व प्रकार से सत्य के अनुकूल द्दढ़ बना कर दीनता-रहित हो निर्भय विचरण करता हुआ अपने चित्त को पाप से रहित करे । बस, यही एक उपाय पवित्र या शुद्ध होने के लिए कहा गया है ॥२३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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