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सररररररररररर164रररररररररररररररररर __ इस प्रकार उत्थान और पतन से परिपूर्ण, शतरंज के खेल के समान इस धरातल पर हम लोगों में से कब कौन मनुष्य बाजी मार जाय, इस बात को कहने के लिए यह अज्ञ प्राणी समर्थ नहीं है ॥१४॥
किमत्र नाज्ञोऽञ्चति विद्विधानं विज्ञोऽपि विक्षेपमिति प्रथा नः । संशोधयेयुर्मदमत्सरादीजना निजीयान्न परोऽत्र वादी ॥१५॥
क्या इस संसार में अज्ञानी पुरुष विद्वत्ता को प्राप्त नहीं होता है और क्या विद्वान् भी विक्षेप(पागल-) पने को प्राप्त नहीं होता है ? (जब संसार की ऐसी दशा है, तब भाग्योदय से प्राप्त विद्वत्ता आदि का मनुष्य को अहंकार नहीं करना चाहिए) किन्तु मनुष्यों को अपने मद, मत्सर आदि दुर्भावों का संशोधन करना चाहिए । महान् पुरुष बनने का यही निर्विवाद मार्ग है, अन्य नहीं ॥१५॥
भर्ताऽहमित्येष वृथाऽभिमानस्तेभ्यो विना ते च कुतोऽथ शानः ।
जलौकसामाश्रयणं निपानमेभ्यो विनाऽमुष्य च शुद्धता न ॥१६॥ एक राजा या स्वामी को लक्ष्य में रख कर कवि कहते हैं कि हे भाई, जो तू यह अभिमान करता है कि मैं इन अधीनस्थ लोगों का भरण-पोषण करने वाला हूँ, इन सेवकों का स्वामी हूँ, सो यह तेरा अभिमान व्यर्थ है, क्योंकि उन आश्रित जनों या सेवकों के बिना तेरी यह शान कहां संभव है ? देखो, मछलियों का आश्रयदाता सरोवर है, किन्तु उनके विना सरोवर के जल की शुद्धता संभव नहीं है, क्योंकि वे मछलियां ही सरोवर की गन्दगी को खाकर जल को स्वच्छ रखती हैं ॥१६॥
को नाम जातेश्च कुलस्य गर्वः सर्वः स्वजात्या प्रतिभात्यखर्वः । विप्रोऽपि चेन्मांसभुगस्ति निन्द्यः सद्-वृत्तभावाद् वृषलोऽपि वन्द्यः ॥१७॥
जाति का, या कुल का गर्व करना कैसा ? सभी मनुष्य अपनी जाति में अपने को बड़ा मानते हैं । मांस को खाने वाला ब्राह्मण निंद्य है और सदाचारी होने से शूद्र भी वंद्य है ॥१७॥
भावार्थ - जो लोग उच्च जाति या कुल में जन्म लेने मात्र से ही अपने को उच्च मानते हैं, किन्तु काम नीच पुरुषों जैसे करते हैं, उन्हें कभी उच्च नहीं माना जा सकता । इसी प्रकार भाग्यवश जो शूद्रादि के कुल में भी उत्पन्न हुआ है, किन्तु कार्य उच्च करता है, तो उसे नीच भी नहीं कहा जा सकता। कहने का सार यह है कि सदाचरण से मनुष्य उच्च और असदाचरण से मनुष्य नीच कहलाने के योग्य
विवाहितो भ्रातृजयाङ्ग भाजा सम्माननीयो वसुदेवराजः । नारायणो नाम जगत्प्रसिद्धस्तस्यास्तनूजः समभूत्समिद्धः ॥१८॥ देखो, प्राणियों में सम्माननीय वसुदेव राजा ने अपने भाई उग्रसेन की लड़की देवकी से विवाह किया और उसके उदर से जगत् प्रसिद्ध और गुण-समृद्ध श्रीकृष्ण नाम के नारायण का जन्म हुआ ॥१८॥
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