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दूसरे के दोष को कभी भी प्रकट न करे, उसके विषय में मौन धारण करे, अपनी वृत्ति से दूसरे का पालन-पोषण करे, दूसरे के गुणों का ईर्ष्या रोषादि से रहित होकर अनुसरण करे और इस प्रकार सच्ची मनुष्यता को प्राप्त होवे ॥९॥
नरो न रौतीति विपन्निपाते नोत्सेक मेत्यभ्युदयेऽपि जाते । न्याय्यात्पथो नैवमथावसन्नः कर्त्तव्यमञ्चेत्सततं प्रसन्नः ॥१०॥ मनुष्य को चाहिए कि वह विपत्ति के आने पर हाय हाय न करे, न्यायोचित मार्ग से कभी च्युत न होवे और सदा प्रसन्न रहकर अपना कर्त्तव्य पालन करे ||१० ॥
स्वार्थाच्युतिः स्वस्य विनाशनाय परार्थतश्चेदपसम्प्रदायः । स्वत्वं समालम्ब्य परोपकारान्मनुष्यताऽसौ परमार्थसारा ॥११॥
स्वार्थ से भ्रष्ट होना अपने ही विनाश का कारण है और परार्थ (परोपकार) से च्युत होना यह सम्प्रदाय के विरुद्ध है । इसलिए मनुष्य को चाहिए कि अपने स्वार्थ को संभालते हुए दूसरे का उपकार अवश्य करे । यही परमार्थ के सारभूत मनुष्यता है ॥ ११ ॥
समाश्रिता मानवताऽस्तु तेन समाश्रिता मानवतास्तु तेन । पूज्येष्वथाऽमानवता जनेन समुत्थसामा नवताऽऽप्यनेन ॥१२॥
जिस पुरुष ने मानवता का आश्रय लिया, अर्थात् सत्कार किया, उसने मानवता का आदर किया। तथा जिसने पूज्य पुरुषों में अभिमान रहित होकर व्यवहार किया उसने वास्तविक मानवता को प्राप्त किया ॥१२॥
भावार्थ पूज्य पुरुषों में मान-रहित विनम्र होकर, सर्व साधारण जनों में समान भाव रखता हुआ सत्य मार्ग को अपनाने वाला उत्तम पुरुष ही सदा मानवता के आदर्श को प्राप्त होता है ।
विपन्निशेवाऽनुमिता भुवीतः सम्पत्तिभावो दिनवत्पुनीतः । सन्ध्येव भायाद् रुचिरा नृता तु द्वयोरुपात्तप्रणयप्रमातुः ॥१३॥
संसार में मनुष्य को सम्पत्ति का प्राप्त होना दिन के समान पुनीत ( आनन्द - जनक) है, इसी प्रकार विपत्ति का आना भी रात्रि के समान अनुमीत ( अवश्यम्भावी) है । इन दोनों के मध्य में मध्यस्थ रूप से उपस्थित एवं स्नेहभाव को प्राप्त होने वाले महानुभाव के मनुष्यता सन्ध्याकाल के समान रुचिकर ( मनोहर ) प्रतीत होना चाहिए ॥ १३ ॥
एवं समुत्थान- निपात पूर्णे धरातलेऽस्मिन् शतरञ्जतूर्णे । भवेत्कदा कः खलु वाजियोग्यः प्रवक्तुमीशो भवतीति नोऽज्ञः ॥१४॥
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