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सम्मानयत्यन्यसतस्तु वर्तिं सैवाधुना मानवतां विभर्त्ति ।
स केन द्दश्योऽस्तु पश्यतीति परानिदानीं समवायरीतिः ॥५॥
जो दूसरे सज्जन पुरुष की बात का सन्मान करता है, उसकी छोटी सी भी भली बात को बड़ी समझता है, वही आज वास्तव मनुष्यता को धारण करता है । जो औरों को तुच्छ समझता है, उनकी ओर देखता भी नहीं है, स्वयं अहंकार में मग्न रहता है, क्या उसे भी कोई देखता है ? नहीं। क्योंकि वह लोगों की दृष्टि से गिर जाता है । अतएव दूसरे का सन्मान करना ही आत्म - उत्थान का मार्ग है ॥५॥
मनुष्यता ह्यात्महितानुवृत्तिर्न केवलं स्वस्य सुखे प्रवृत्तिः । आत्मा यथा स्वस्य तथा परस्य विश्वैक सम्वादविधिर्नरस्य ||६||
आत्म-हित के अनुकूल आचरण का नाम ही मनुष्यता है, केवल अपने सुख में प्रवृत्ति का नाम मनुष्यता नहीं है । जैसा आत्मा अपना समझते हो, वैसा ही दूसरे का भी समझना चाहिए । अतः विश्व भर के प्राणियों के लिए हितकारक प्रवृत्ति करना ही मनुष्य का धर्म है, औरों के सुख में कण्टक बनना महान् अथर्म हैं ॥६॥
भावार्थ
तुम जैसा व्यवहार अपने लिए चाहते हो, वैसा ही व्यवहार दूसरों के साथ करो । पापं विमुच्यैव भवेत्पुनीतः स्वर्णं च किट्टप्रतिपाति हीतः । पापाद् घृणा किन्तु न पापिवर्गान्मनुष्यतैवं प्रभवेन्निसर्गात् ॥७॥
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पाप को छोड़कर ही मनुष्य पवित्र कहला सकता है । (केवल उच्च कुल में जन्म ले लेने से ही कोई पवित्र नहीं हो जाता ।) कीटकालिमा से विमुक्त होने पर ही सुवर्ण सम्माननीय होता है, (कीटकालिमादि युक्त सुवर्ण सम्मान नहीं पाता ।) इसलिए पाप से घृणा करना चाहिए, किन्तु पापियों से नहीं । मनुष्यता स्वभाव से ही यह सन्देश देती है ॥७॥
वृद्धानुपेयादनुवृत्तबुद्धयाऽनुजान् समं स्वेन वहेत्त्रशुद्धया ।
कमप्युपेयान्न
कदाचनान्यं
मनुष्यतामेवमियाद्वदान्यः
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अतएव बुद्धिमानों को चाहिए कि अपने से बड़े वृद्ध जनों के साथ अनुकूल आचरण करें, अपने से छोटों को अपने समान तन-मन-धन से सहायता पहुँचावे, किसी भी मनुष्य को दूसरा न समझें । सभी को अपना कुटुम्ब मानकर उनके साथ उत्तम व्यवहार करें। इस प्रकार उदार मनुष्य सच्ची मानवता को प्राप्त करे ॥८॥
प्रोद्घाटयेन्नैव परस्य दोषं स्ववृत्तितोऽपीह परस्य पोषम् । कुर्वीत मर्त्यत्वमियात्सजोषं गुणं सदैवानुसरेदरोषम् ॥९॥
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