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________________ लालालाल अथ सप्तदशः सर्गः अज्ञोऽपि विज्ञो नृपतिश्च दूतः गजोऽप्यजो वा जगति प्रसूतः । अस्यां धरायां भवतोऽधिकारस्तावान् परस्यापि भवेन्नृसार ॥१॥ हे पुरुषोत्तम, इस भूतल पर जो भी उत्पन्न हुआ है, वह चाहे मूर्ख हो या विद्वान्, राजा हो या दास, गज हो या अज, (बकरा), इस पृथ्वी पर जितना आपका अधिकार है, उतना ही दूसरे का भी अधिकार है, ऐसा विचार करना चाहिए ॥१॥ पूर्वक्षणे चौरतयाऽतिनिन्द्यः स एव पश्चाजगतोऽभिवन्द्यः । यो नाभ्यवाञ्छत्कुलयोषितं स वेश्यायुगासीन्महतां वतंसः ॥२॥ संसार के स्वरूप का विचार करो, जो विद्युच्चर अपने जीवन के पूर्व समय में चोर रूप से अति निर्दय था, वही पीछे जगत् का वन्दनीय महापुरुष बन गया । और जो महापुरुषों का शिरोमणि चारुदत्त सेठ अपनी विवाहिता कुल स्त्री के सेवन की भी इच्छा नहीं करता था, वही पीछे वेश्यासेवी हो गया। कैसी विचित्रता है ॥२॥ गुणो न कस्य स्वविधौ प्रतीतः सूच्या न कार्यं खल कर्तरीतः । ततोऽन्यथा व्यर्थमशेषमेतद्वस्तूत नस्तुच्छ तया सुचेतः ॥३॥ हे सुचेतः (समझदार), यह तुच्छ है और वह महान् है, ऐसा सोचना व्यर्थ है, क्योंकि अपने अपने कार्य में किसका गुण प्रतीत नहीं होता । देखो, कैंची से सुई छोटी है, पर सुई का कार्य कैंची से नहीं हो सकता । इसलिए छोटे और बड़े की कल्पना करना व्यर्थ है ॥३॥ स्वमुत्तमं सम्प्रति मन्यमानोऽन्यं न्यक्करोतीति विवेकभानो । तवेयमात्मभरिता हि रोगं-करी भवेद्यस्य न कोऽपि योगः ॥४॥ हे विवेक-सूर्य आत्मन्, इस समय तू अपने आपको उत्तम मानता हुआ दूसरे को तुच्छ समझ कर उसका तिरस्कार करता है, यही तो तेरी सब से बड़ी स्वार्थपरता है और यही तेरे उस भव-रोग को उत्पन्न करने वाली है, जिसका कि कोई इलाज नहीं है ॥४॥ भावार्थ - स्वार्थी मनोवृत्ति से ही तो मनुष्य पतित बनता है और उसे छोड़ देने पर ही मनुष्य का उद्धार होता है, इसलिए हे आत्मन्, यदि तू अपना उद्धार चाहता है, तो अपनी स्वार्थपरायणता को छोड़ दे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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