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________________ 160 अपने साध्य की सिद्धि के लिए जिस प्रकार एक साधु को अपने मन और इन्द्रियों का निग्रह करना आवश्यक होता है, वैसा ही निग्रह राजा को भी अपनी राज्य सम्पत्ति के संरक्षण करने के लिए भी आवश्यक है । किन्तु दोनों की साधना में केवल यह भेद है कि राजा केवल अपने योग्य विषयों के सिवाय शेष अन्य विषयों में रस नहीं लेता है और योगिराज के सभी विषयों में रस नहीं रहता है, अर्थात् वे इन्द्रिय और मनके सर्व विषयों से उदासीन हो जाते हैं ॥२८॥ 1 भूमेर्भवेत्पतिः योगिराट ॥२९॥ अतएव राजा तो कुछ सीमित भूमि का ही स्वामी बनता है, किन्तु योगिराज विश्व भर के साम्राज्य का स्वामी बन जाता है ॥२९॥ खड् गेनायसनिर्मितेन अतएव विश्वस्य कियत्याः किन्तु स राजा साम्राज्यमधिगच्छति न तो वज्रेण वै हन्यते तन्यते 1 संहारकः सकः तस्मान्निर्वजये नराय च विपद्दैवेन त दैवं किन्तु निहत्य यो विजयते तस्यात्र स्यादित्यनुशासनाद्विजयतां वीरेषु वीरः कः ॥३०॥ जो मनुष्य लोहे से बनी खड्ग से नहीं मारा जा सकता, वह वज्र से निश्चयतः मारा जाता है। जो वज्र से भी नहीं मारा जा सकता वह दैव से अवश्य मारा जाता है, किन्तु जो महापुरुष दैव को भी मारकर विजय प्राप्त करता है, उसका संहार करने वाला फिर इस संसार में कौन है ? वह वीरों का वीर महावीर ही इस संसार में सर्वोत्तम विजेता है, और वह सदा विजयशील बना रहे ॥३०॥ भूरामले त्याह्वयं Jain Education International यं धीचयम् । श्रीमान् श्रेष्ठि चतुर्भुजः स सुषुवे वाणीभूषणवर्णिनं घृतवरी देवी च प्रोक्तेन च षोक्तोडशोऽयमधुना सर्गः समाप्तिं गतः वीरोपज्ञविहिं सनस्य कथनप्रायो ऽति संक्षेपतः ।।१६॥ इस प्रकार श्रीमान् सेठ चतुर्भुजजी और घृतवरी देवी से उत्पन्न हुए वाणीभूषण, बाल- ब्रह्मचारी पं. भूरामल वर्तमान मुनि ज्ञानसागर विरचित वीरोदय में श्री वीर भगवान् द्वारा उपदिष्ट अहिंसा धर्म का संक्षेप से वर्णन करने वाला सोलहवां सर्ग समाप्त हुआ ||१६|| ܀ ܀ ܀ For Private & Personal Use Only www.jainélibrary.org
SR No.002761
Book TitleVirodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages388
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size19 MB
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